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ग़ज़ल
ऐसे समय इश्क़ फ़रमाना हद करते हो
बेपनाह मातम मे गाना हद करते हो।
मची तबाही की इस हालत पर बाज़ार
और चाहते दुकां बढ़ाना हद करते हो।
सीधा सादा सफ़र हुआ ही तो जाता था
ऐसे ख़्वाबों में भटकाना हद करते हो।
रौशन भी है घर लेकिन कुछ पढ़ा न जाए
ऐसी आँखों में सपनाना हद करते हो।
चार क़दम की दूरी कहते हो लो मानी।
कहते हो सब नाम भुलाना हद करते हो।
पिछली ऋतुओं से ही कोई रुत ना देखी
अब के भी पतझर ले आना हद करते हो।
हम धरती हो झुलस रहे हैं कब से औ तुम
चाँद अर्श से यों मुस्काना हद करते हो।
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#उचितवक्ताडेस्क।
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