शब्द झन-झन बोलते थे आज झर-झर बोलते हैं
लोग तन कर बोलते थे आज डर-डर बोलते हैं।
वक़्त का यह हुक्म है या आदमी ही फ़ितरतन
जो जहाँ जिस हालमें हैं मुँह बहुत कम खोलते हैं
बेचने और कीनने का यों चलन तो है पुराना
अब नये इस दौर में लोग आत्मा तक तोलते हैं।
इक सियासत है जिसे कुछ डर नहीं ना फ़िक्र है
रात दिन इक दूसरे की पोल धड़-धड़ खोलते हैं।
मातमों के इस मुसल्सल दौर में कल दिल मेरा
कह रहा था तू बचा कि गया आ टटोलते हैं।
*
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
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