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मेरे सपने में ज़्यादा टूटे घर निकले।
हम लेकिन क़ायम अपने नक्शे पर निकले।
एक इलाक़ा कौन कहे गाँव के गांँव
रोटी के पीछे अनजान सफ़र पर निकले।
दस्तक पर दस्तक दी तब जाकर उस घर से
झाँके एक बुजुर्ग डरे ना बाहर निकले।
बस्ती भर के फूसों की झोपड़ियों वाले
घर मेरे ईंटों के हरदम कमतर निकले।
इस इकीसवीं सदी में भी ज़्यादा घर से
झुलसी रोटी ही खाते पत्तल पर निकले
बारंबार चुनावों के इस लोकतंत्र में
धरती के रहनुमा तो फिर अम्बर निकले।
आधी रोटी लिए झोपड़ों से वे बच्चे
लेकर बड़े घरों से उम्दा बर्गर निकले।
अंँटे कवायद क्यूँकर ये सब मिरे ज़ेह्न में
इस साँचे से हम जो हरदम बाहर निकले।
गंगेश गुंजन।
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#उचितवक्ताडेस्क।
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