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सुरक्षा अब
अब हम कुछ हत्यारों के बीच अपने को
सुरक्षित पाते हैं।
ऐसा नहीं है कि यह कोई जाति,संप्रदाय या
धर्म का मामला है।
नहीं। मनुष्य के अस्तित्व और थोड़ा निश्चिंत
होकर जीने के अरमान की-जिजीविषा भर का
है।
हम जन साधारण का यह मन
बीते तमाम दशकों की राजनीतियों,
और सल्तनतों की आमद है। इन्होंने ही
हमारी समाज सांँस्कृतिक लोक-चेतना का
सामूहिक विवेक कुंद करके,
इस बदहाल मुक़ाम तक पहुंँचाया।
ऐसा मानस बना कर छोड़ रखा है।
हम तो सिर्फ सपरिवार चैन से सुरक्षित जीने के
अभिलाषी रहे। लेकिन इत्ती-सी भर आकांक्षा
में भी अपने लोकतंत्र ने हमें ऐसा बनाया है।
यह ज़रूर जाना कि राजनीति कोई भी हो,
विचारधारा कोई भी हो, कोई भी हो संगठन,
सत्ता से बाहर वह कुछ भी नहीं है और
सत्ता में वह सदैव क्रूर,हृदयहीन नृशंस है।
वक़्त बेवक़्त उसने ऐसा समझाया भी है।
हमीं नहीं समझे अभी तक।
यह भी कोई जाति,संप्रदाय,भाषा,क्षेत्र या
धर्म का मामला नहीं बल्कि,
लोकतंत्र में क्रियाशील राजनीतिक
विचार-व्यवहारों की स्नायु में प्रवाहित शोणित
की तासीर का है।
यह विडंबना नया यथार्थ है कि अब हम
अपने को
हत्यारों की छत्रछाया,उनकी ही शरण में
सपरिवार और गांँव भर को सुरक्षित और
शांतिपूर्ण महसूस कर सकते हैं।
यह कोई बौद्धिक वैचारिक समझौता भी
नहीं है।
गत इतने दशकों का राजनीतिक हासिल है।
जन-जन का हमारा यह समाज अब
शोषक और शोषित,अमीर और ग़रीब इन दो
पुराने प्रतिपादनों में नहीं, बल्कि
ताज़ा बिल्कुल नये उभर कर आये
दो वर्ग,दो जातियों में जीने के लिए अभिशप्त
हैं
सुरक्षित वर्ग और असुरक्षित वर्ग।
मेरा घर-
दूसरे वर्ग बस्ती में है।
*
गंगेश गुंजन
०३.११.'२०.
#उचितवक्ताडेस्क।
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