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अभी हाल-हाल तक मैं अपना निजी दुख चुटकियों में दफ़्न कर लेता था।हाँ समूह, सामाजिक दुःख और समस्यायें अवश्य मेरे मानस को देरतक आन्दोलित रखती थीं जब तक किसी न किसी रूप में वह अभिव्यक्त न हो जाए। लेकिन इधर पाता हूंँ कि छोटा से छोटा निजी भी दुःख ज़ब्त करने में असमर्थ होने लगता हूँ।और ये अनुभव इतना उद्वेलित करता है कि अक्सर सहमा रहता हूंँ।
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शीश से पैर तक वो धुंध में लिपटा लगा मुझे,
दिल्ली में भी अपने गाँव तक सिमटा लगा मुझे।
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
Monday, March 25, 2024
अब तक मुझे लगता था
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