।•। ग़ज़लनुमा ।•।
घर-घर तन्हा है घर में
तन्हा हैं हम भी घर में।
बाहर कम बेचैनी है
ज़्यादा तो है अन्दर में।
दरिया लगा सूखने तो
चिन्ता बढ़ी समन्दर में।
कल रहता था वो जैसे
अब जीते हैं हम डर में।
नाच वही सब लगता है
फ़र्क़ ज़रा है बन्दर में।
भाभी गर बदली है कुछ
दूरी आई देवर में।
ऐसे नहीं छूटता वो
भूल हुई सब धर-फर में।
मामूली भी मसला क्यों
दीखे किसी बवन्डर में।
बदल रहे हैं सब रिश्ते
जनता-नेता-अफ़सर में।
बुझा-बुझा रहता है सच
झूठ ख़ूब है चर-फर में।
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
[पुनः प्रेषित]
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