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फ़ितरत पर है आज मुझे
ग़ुर्बत पर है नाज़ मुझे
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माँ मैना कहती है मुझको
और सियासत बाज़ मुझे।
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हो ही जाता है सब ख़त्म
तब भी प्रिय आग़ाज़ मुझे।
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जो है मुझ में खरा भरा
ये ख़ुद्दार अंदाज़ मुझे।
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खाँटी है जो सोच समझ
इस क़ुदरत पर नाज़ मुझे।
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है कोई ज़ालिम अब भी
जब-तब दे आवाज़ मुझे।
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कब से ही चुप रखा,पड़ा
छेड़ूँ दे तो साज़ मुझे।
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सौंप गया है जो मरुथल
उस पर इतना नाज़ मुझे।
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
रचना -२२.०२.'२३.
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