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लिखता हूँ तो ज़रूर है ये लोग पढ़ेंगे
मुमकिन है रुके काफ़िले भी कूच करेंगे।
एक क़ौल क़सम ही है मिरी शाइरी ये भी
हम भी निकल पड़े हैं एक साथ बढ़ेंगे।
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पिछली बहार भी तो गुज़री बहुत उदास
अबके ज़रा है आस कहीं फिर से मिलेंगे।
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कैसी ये सियासत है और लोगसियासी
अब किस वसन्त में जा कर फूल खिलेंगे।
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फ़िलहाल तो ये ज़िद है गर हो गई जुनून
जिसभी किसीदिन हक़के लिए मरभी मिटेंगे
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कल ही की तो बात है गुंजन ने पूछा
ग़ाफ़िल रहोगे कबतक हम यूंँ ही मरेंगे।
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क
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