Tuesday, February 7, 2023

लोकमाता है -लोकतंत्र !

🌳  लोकमाता है लोकतंत्र : राजमाता नहीं।
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   लोकतंत्र राजमाता नहीं है,लोकमाता है। एक साथ कई-कई बच्चों की विविध रुचि भोजन बनाने और खिलाने का मातृ दायित्व निर्वाह क्या समस्या है इसे अभावग्रस्त मांँ ही जानती है वैभव समृद्ध कोई राजमाता नहीं।
   अपने बाल-बच्चों के लिए जलावन से लेकर पानी और बर्तन तक सबकुछ,मांँ को अपने बूते करना पड़ता है। कोई सहायक नहीं।
   राजमाता के समान उसके पास संसाधन-सेवकों की क़तार नहीं खड़ी रहती। रसोइये नहीं होते‌।  
     राजमाता के पास ये सब होते हैं।
   मुझे अपने बचपन की याद आती है।हम चार भाई बहनें तो ऐसे थे जो दो से चार साल अंतर केआस-पास की ही उम्र के थे। और अभाव के जबरदस्त दिन। बाढ़ सुखाड़ वाले उन दिनों में मांँ जब रोटी बनाने लगतीं तो सभी को पहले चाहिए होती थी। मांँ करें तो क्या? 'आग-पानी तो हमसे नहीं डरते।' कह-कह कर थक जातीं।
ऐसे ही हालात में मांँ को यह हिसाब था कि हममें से कौन धीरज रख सकता है और कौन इंतजार नहीं कर सकता। तब हर बार वो बच्चों के स्वभाव हिसाब से युक्ति निकाला करतीं।
   कैसे-कैसे आश्वासन गढ़तीं।हमें खिलातीं और किसी तरह यह सब संभालतीं। अपना निर्वाह किया करतीं। तब हम खाते थे।
   परंतु जब वास्तविक भोजन का समय होता तो अक्सर मांँ के सामने एक और विकट चुनौती आ कर खड़ी हो जाती।भोजन में हम चारों की अलग-अलग मांँग होती थी। 'मेरे लिए यह बना दो', 'मुझे यह अच्छा नहीं लगता। मेरे लिए वह बना दो मांँ।' इत्यादि। जबकि मांँ के पास भोजन सामग्री सहित ज़रूरी सभी साधन अत्यंत सीमित होते थे। ह्रदय माता का !
   परेशान हो जाया करतीं। कहांँ से लातीं उतनी सब्जी उतने प्रकार कहां से बनातीं ? ऐसे में सोचा जा सकता है कि मांँ की आत्मा पर क्या गुजरती होगी।
तब तो इसका बोध ही नहीं था।आज है तो महसूस करता हूंँ। जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में हम जी रहे हैं उसकी सीमाएंँ हैं। तटस्थ होकर ईमानदारी से देखें तो इसकी सीमाएंँ भी उसी अभावग्रस्त मांँ की तरह हैं।
    उनकी ही संतानें उनके सामने अपनी इच्छा और रुचि और विन्यास का भोजन चाहती हैं और मांँ विवश है।उनके झगड़े सुलझाने में परेशान हैं।
     मेरे इस रूपक पर कितने ही प्रबुद्ध जन परिस्थिति-बोध के तौर पर मेरा भोलापन या मेरी नासमझी भी मानें तो ज़रा भी विस्मित नहीं होना चाहिए।
किसी भी विशेष या साधारण राजनीतिक पार्टी से इसका कोई लेना-देना नहीं है।
    राजनीतिक विचारधारा से तो और भी दूर-दूर तक नहीं।लेकिन राजनीति,भोजन में नमक बराबर भर नहीं है,ऐसा नहीं। उतनी तो है ही इसमें।
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                    गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।                                  (पुनर्प्रस्तुत पोस्ट) 


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