🛖|
अंधेरे छांँटते हैं
*
पुराने घर में रातें काटते हैं।
काटते क्या अंधेरा छांँटते हैं।
रौशनी ही नहीं जब मेरे घर में
तीरगीयाँ सहर तक काटते हैं।
ख़ुशी अबतक मयस्सर ही नहीं जब
मिले हैं दु:ख तो दु:ख ही बाँटते हैं।
वो बूढ़े हैं जो उस घर के दादा
वक़्त बेवक़्त कितना खाँसते हैं।
अजब मातम का डेरा जग हुआ है
लोग जीने को दु:ख भर काटते हैं।
बड़ा सुकुमार है दादी का पोता
कहे दादी को- 'दादा डाँटते हैं।'
किसी पल मरने वाले ज्योतिषीजी
अजब है भाग्य मेरा बाँचते हैं ।
अनर्गल करने वे कविता में हमको,
ख़ुद को कवि निराला ही आँकते हैं।
नहीं आते अब उसके छलावे में
रात भर खुली आँखों जागते हैं ।
छुपा कर रौशनी रक्खेंगे कब तक
हम उनके अंधेरे जब फाँकते हैं।
*
गंगेश गुंजन,
२४.जुन.'२१.
#उचितवक्ताडेस्क।
No comments:
Post a Comment