कोई जो बतलाता हमको कबतक और चलना होगा
पाँव पाँव,जंगल-पर्वत,दरिया-सागर करना होगा।
कितने मासूमों की बस्ती कितने पिंजर बन्द परिन्दे
ख़ौफ़ ओ ख़तर में क़ैद आदमी औ जल्लाद ज़माना होगा।
किस बेरहमी से आएगा पेश और बरतेगा कैसे
नाम मेरा लेगा ममता (ख़ुलूस) से या बिल्कुल बेगाना होगा
होता है ऐसा भी सफ़र काश हुआ होता इल्हाम
तपती रेतों पर नंगे पाँवों इतना चलना होगा।ऐसे वक़्तों का भी हमको इल्म रहा होता तो कैसे
होंगी सब बीमार दोस्तियाँ सेहतमंद करना होगा।
कहने को तो कहते ही रहते हैं सभी सियासतदान
लेकिन क्या बदला है ढाँचा-ढर्रा,सभी बदलना होगा।
मुझको तो रहना न आया रखता अपने घर में कौन
आख़िर तो चलना था आगे,अभी और चलना होगा।
निकलेंगे तो एक बार फिर अपने नेपथ्यों से लोग
हम भी निकलेंगें देखेंगे जो भी हो,जो होना होगा।
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
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