इस कुतरे जाते हुए समय में !
नहीं चाहिए वह सब कुछ जो छूट गया ।
या चला गया। प्यारा भी था,
काम का भी था,और सुविधाओं का भी ,
नहीं दरकार अब।
अब नहीं चाहिए वो सब ।
आ भी जायँ तो हमारे नए घर में कहाँ रहेंगे ? जगह कहांँ है यहाँ ? यहाँ तो
चमकदार ब्रांँड नामों के साथ ऐसी-ऐसी अनाप-शनाप की भी नयी चीजें
बड़े जतन से बहुत सजा कर रखी हुई हैं
अब बीच में उन्हें कहांँ पर कैसे रखा जा सकता है ?
नहीं चाहिए जो छूट गया,खो गया या कहीं रास्ते में रह गया।
इतनी कम जगह में अब कहांँ रखेंगे उसी अनुराग के साथ ?
अब तो जो भी जगह है जितनी,
किसी असंतोष,किसी बनावटी विद्रोह, किसी नकली भाषा,किसी टूटे-फूटे सपने कोई छद्म मुस्कान लिए घेरे हुई है ।
कुछ टूटे हुए साथ हैं,
धर्म और संस्कृति,भाषा और इतिहास- भूगोल पर कुछ बिखरी हुई अधलिखी किताबें हैं
बीच-बीच में दुश्चिंताओं के चूहे निश्चिंत होकर रेंगते हुए ।
ऐसा नहीं कि घर नहीं है,
बक़ायदा घर है।घर में घर का,सब कुछ है
वैसा ही रसोई घर भी है,
अनाज,नमक तेल मसाले भी हैं
हरी सब्जियांँ भी लेकिन सब की सब जैसे किसी न किसी बेमन के लगाव से सजी रखी हुई हैं पैकेटों और प्लास्टिक डिब्बों में
अब इस बीच में मैं कहा रखूंँगा जो कहीं रह गए,पीछे छूट गए या ख़ुद नहीं आए मेरे साथ।
अभी तो सामने जो समय है और जिसमें कोई भविष्य पनप रहा हो शायद ।
ज़्यादा कुछ तो अशांति में दबे हैं -
परिवेश,पर्यावरण पर अनिश्चय और संदेह का साम्राज्य है।बुद्धि-विचारों पर अविश्वास और अनास्था की सल्तनत है।
टमटम में जुते घोड़े वाली आंँखों पर पट्टी है बंँधी हुई,आगे बहुत दूर चलना है
ज़्यादा चलने वाले को कहांँ जाना है पता भी नहीं। तो
जो छूट गया, रह गया या जो खुद नहीं आया उन्हें अब इसमें लाकर कहाँ रखूँ। यहाँ रखना कितना मुश्किल हो गया है ख़ास कर तरीक़े से रखना !
उस प्यार और मोहब्बत से,सलीक़े से
इन्हें सँवार कर रखना तो और भी मुश्किल है बल्कि नामुमकिन !
और वो जुमला- मुमकिन !
किसी के कह देने से सब मुमकिन है,
सब,
मुमकिन नहीं हो जाता। 🍂🍂
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
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