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यादों से पहले माज़ी का मंज़र था
बाद नदी के आगे एक समन्दर था।
सजी धजी मीना बाज़ार व' मोहतरमा
और सामने कोई खड़ा क़लन्दर था।
अभी-अभी तो नेता की मजलिस छूटी
और अभी ही भड़का कोई बवंडर था।
अबके भी बादल बरसे बिन लौट गये
धरती के आगे शर्मिन्दा अम्बर था।
अन्देशे हर सू क्या अनहोनी हो जाए
ऐसे में इक फ़ोन अजाना नंबर था।
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
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