Friday, January 19, 2024

मेघाच्छन्न प्रतिबद्धताओं में

💨         मेघाच्छन्न प्रतिबद्धताओं में 

     लिख पढ़ की दृष्टि से प्रतिबद्ध
रचनाकारों का अभी अकाल काल चल रहा लगता है। सच और यथार्थ तो फिलहाल दलीय राजनीतिक सत्ताओं के मीडियाओं की लुक्का छिप्पी भर बन गया है। सार्वजनिक जीवनके सभी यथार्थ किसी न किसी राजनीतिक सत्ता की ही उपज भर प्रचारित होने रहने के कारण अपने-अपने सकल प्रतिबद्ध अपनी ज़िद से ही तमाम चैनेलों पर पक्षीय यथार्थ गढ़ कर सेवायें दे रहे हैं।काम चला रहे हैं।ऐसा सिर्फ़ साहित्य में ही नहीं, प्रखर उग्र पत्रकारिता में भी आम लगता है। साधारण जन के लिए तो यह और खतरनाक है।आख़िर उनका भी तो कोई अपना पक्ष है। इस घटाटोप को वे क्या समझें और करें ? किस तरफ देखें,जायँ।
  जाने किनके पास अपना अपना कैसा विश्वस्त सूचना-तंत्र है कि वे भरदेशी समाज राजनैतिक सच्चाइयों को आर-पार देख परख लेते हैं,समझ लेते हैं और मन मुताबिक़ कहने के लिए सान्ध्य सत्यों की भी बारात भी सजा लेते हैं। आश्चर्य होता है।
साधारण जन और सिर्फ़ लेखक इसमें बौआ जाता है। भटक जाता है।उसमें तो
किंकर्तव्यविमूढ़ता की परिस्थिति व्याप्त है।
    पत्रकारिता तो ख़ैर रोज़मर्रे की खेती है लेकिन इस घनी अनिश्चितता के दौर में कुछ दिनों तक कविता लिखना स्थगित नहीं रखा जा सकता ? मैंने तो सोचा है।
               #उचितवक्ताडेस्क।

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