•• लोक आ लोक !
किछु लोक पैघ होइत छथि।किछु लोक पैघ बनैत छथि। होइ आ बनैए मे पेंच छैक। से बुद्धि मनुष्य कें समय सुझबै छैक जीवनक अनुभव यात्रा मे। जकरा सुझा जाइत छैक तकरा देखाइयो पड़ैत छैक।
किछु लोक अपने देखैत छथि। बेसी गोटय लोकक देखाओल देखैत छथि।
ओना तँ कला मात्र मे किन्तु साहित्य मे एकर बोध निजी धरि सीमित नहिं रहि क’ सामाजिक भ’ जाइत छैक। सैह उत्तर दायित्वक बोध लेखक सोझाँ असल चुनौती रहैत छैक। तें ‘रचब’ आ ‘फोकला’ फोड़ब (लीखब) देखार भ’ जाइत छैक। स्वाभाविके जे देर सबेर पाठक, समाज तथा लोकबुद्धि मे सेहो ई सब टा बात आबिए जाइ छैक।••
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
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