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दिल आया उपकार किया
वाहियात बेकार किया।
दाग़ दाग़ हैं अक्षर अक्षर
कवि ने जो दरबार किया।
लेकर आया था सौग़ात
किसने अस्वीकार किया।
रुत ने भी मिहनत,क़द को
खुल कर कभी न प्यार किया।
राजनीति को क्या कहिए
ऐसा बंँटा ढार किया।
बहुत अपशकुन लगता है
उसने जो व्यवहार किया।
वापिस पैर नही रक्खा
कितना तो मनुहार किया।
किस पर रोएगी कविता
किसने कारोबार किया।
दरबारी मधुशाला भर
मैंने देसी ढार पिया।
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
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