दूब के वर्ग !
**
आज मुझे अभी सुबह मैं अपेक्षाकृत बहुत मुलायम दूब पर चलते-टहलते हुए सहसा हरि उप्पल जी की याद हो आई। वे भारतीय नृत्य कला मंदिर,पटना के संस्थापक और आजीवन अध्यक्ष थे। निश्चित ही वहां के संगीत-सांस्कृतिक परिवेश को उनसे बहुत कुछ मिला। इस क्षेत्र में बिहार और खासकर पटना को उनकी देन अपूर्व है। इसके लिए उन्हें पटना के इतिहास में आदरपूर्ण स्थान भी मिला और जो उचित भी है। परंतु संयोग ऐसा कि मुझे उनकी एक नकारात्मक याद आई ! यद्यपि किसी अवहेलना के भाव से नहीं,आदरपूर्ण स्मृति ही ! कारण कि यह मेरी एक वैचारिक विकलता से उपजी हुई घटना है।
मैंने अभी-अभी कहा कि प्रात: भ्रमण के दौरान आज अभी-अभी मुलायम दूबों पर चलते हुए आया सिर्फ अपनी एक वैचारिक विकलता में। यह सवाल हठात आया कि सामाजिक वर्ग भेद के प्रकार का ही कहीं दूब का भी बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग तो नहीं होता है ?' आपको हंसी आ सकती है परंतु यह मुझे इतने वर्षों बाद सवाल की तरह आया कि हम दूस में भी ‘सामंत दुब’ के अधिकारी नहीं हैं ।
यदि हैं तो बस यही सर्वहारा दूबों पर ही चलने का हक रखते हैं । हरि उप्पल साहब ने भारतीय नृत्य कला मंदिर के मुख्य द्वार और मुख्य सभागार प्रवेश के बीच की जगह को बहुत ही आकर्षक लंबे-लंबे और कोमल दूबों की सज्जा से सजा रखा था। बहुत ही प्यारा और आकर्षक लगता था । बल्कि उस समय तो मोहित करता था । सामने ही आकाशवाणी पटना का भी मुख्य द्वार द्वार होने से और विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आमंत्रित होने के कारण भी जब-जब जाऊं तो हर बार इच्छा हो कि दो-चार-दस क़दम नंगे पैर इन दूबों पर चलूं ! लान में एक-दो चक्कर लगाऊं।वहां इर्द-गिर्द भले ही निगाहों का लेकिन चौकीदारों का सुरक्षा कवच तैनात रहता।
हरि उप्पल जी को तो कभी-कभार उस पर आराम कुर्सी में बैठे सिगार पीते हुए देखा जा सकता था किंतु और किसी को भी कभी भी उन लोगों पर पैर रखते नहीं देखा सो स्वाभाविक है वह बिना कहे भी एक वर्जित प्रदेश था जो आकर्षित तो करता था परंतु स्वीकार नहीं कर सकता था।
सो स्थिति ऐसी थी कि बिना अनुमति के हम अपने मन का वह कर नहीं सकते थे। उनसे संबंध साधारणतः स्नेह पूर्ण और सहज ही था।
एक शाम मुख्य द्वार पर ही मिल गये। कुशल-क्षेम शिष्टाचार में -'कैसे हो गुंजन !...काफ़ी दिनों बाद दिखाई दिये। कहीं बाहर गये थे क्या ?’ स्नेह सौजन्य से पूछा। उत्तर देते और अवसर देखते हुए मैंने कहा-
-भाई जी,मैं इस दूब पर थोड़ा चलना चाहता हूं ।
मेरी आशा के विपरीत उन्होंने लगभग विरक्त भाव से कह दिया -
-नहीं, मैं ऐसा करने की अनुमति नहीं देता हूं। किसी को दूब पर नहीं चलने देता।’ हतप्रभ होकर भी मैंने दुबारे इसरार किया-’मैं इन पर जूते पहनकर नहीं चलूंगा। नंगे पैरों चलने की बड़ी इच्छा है। इससे दूबों की कोमलता को कोई नुकसान नहीं होना चाहिए।’
वह उसी रुक्षता से इनकार कर गये।और मैं अवश्य ही तनिक अपमान-बोध के साथ ही लौटा।
असल में उस प्रजाति की दूब पटना में उस समय दुर्लभ और अकेली दिखाई देती थी। हां, राजभवन में भी थी। किंतु उसके लिए तो 25 जनवरी का इंतजार ! उसमें भी प्रोटोकॉल का दुनियाभर का झमेला! सो दुर्लभ प्राय ही।
उस घटना की खलिश तो रह गई मन में। मगर संयोग से जहां तक याद आता है,वैद्यनाथ आयुर्वेद भवन का कोई रात्रिभोज था जिसमें आमंत्रित था। उस समय तो मुख्य पटना के बहुत बाहर जाकर पटना-दानापुर मार्ग पर शायद उनका कोई एक फार्म हाउस है। वहां जाने का अवसर मिला। वहां जो पहुंचा तो देख कर मेरे हर्ष की इंतिहा नहीं रही। वहां तो भारतीय नृत्य कला मंदिर की समृद्ध और लुभावनी सामंत दूबों से भी अधिक उत्कृष्ट और मोहक प्रजाति की दूब, लान में तमाम बिछी हुई थी ! मेरे लिए तो संयम या धीरज रखना मुश्किल हो गया। मैंने चप्पल उतारी और बिजली-बत्तियों की आकर्षक रोशनी में खिली हुई-सी बिछी हुई मुलायम दूबों के लान में बेतहाशा बेधड़क चलने लगा। देर तक जी भर कर मैं नंगे पांव उस पर चलता रहा ! ...उस वक्त मिले अपने संतोष का आनंद आज सुबह अभी-अभी,पारस प्यारा के उद्यान में दूब पर चलते हुए शिद्दत से याद आया ! हालांकि कुछ फ़र्क के साथ !
सुबह आप लोगों को कह गया आज मैं उसे एक प्रश्न की तरह झेलता हूं ।
-तो क्या,दूबों का भी बुर्जुआ और सर्वहारा प्रकृति या वर्ग होता है ?
बता देना चाहिए कि यहां पारस टियरा की दूब,मध्यवर्गीय दूब है।
*
-गंगेश गुंजन।
३१.०७.२०१८.
Monday, July 30, 2018
दूबों के वर्ग और मध्यमवर्गीय दूब
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment