रह लूंगा जो
थोड़ा-थोड़ा भी रह लूंगा कुछ तो दुनिया को कह दूंगा।
प्यारा है यह जीवन कितना झेलूंगा सब दु:ख सह लूंगा।
सबकुछ कैसे बदल रहा है समझाऊंगा ख़ुद बदलूंगा।
सब बेमानी व्यर्थ नहीं है मक़्सद देकर मानी दूंगा।
बुला रहा है कोई तन्हा पहले उसकी सदा सुनूंगा।
कविता है खु़द असमंजस मे इसको भी इसमें बदलूंगा।
अब समझे हैं लोकतन्त्र का पत्ता हूं पत्ता-ही गिरूंगा।
रहे चांद बादल में घिर कर मैं तो रवि जैसा ही ढलूंगा।
नयी लहर की इस दुनिया में अंधियारी तक जल-बुझूंगा।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ता डेस्क।
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