Wednesday, May 23, 2018

लोकतंत्र का शोभा-सुंदर !

लोकतंत्र का शोभा-सुंदर !
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जिला पुरैनियां से प्रखर युवा पत्रकार चिन्मय आनन्द ने एक दिलचस्प और ज्ञानवर्धक पोस्ट लिखा है कि ट्रंप महोदय का नाम भूल गए। याद करने के लिए आखिर Google से मदद लेनी पड़ी। वैसे Google को भी कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ी। तुरंत उनकी फोटो आ गई। बस। फोटो से पूरा अमेरिका आ गया। अब इस उपलब्धि का उन्होंने किया क्या सो कुछ भी नहीं लिखा है। पत्रकार लोग आजकल यह भी कर देते हैं !
   यही है ज्ञानवर्धक पोस्ट।मेरे एक पचपनोत्तर अनुज बंधु मित्र या कहें मित्रवत अनुज यह पढ़कर इतने उत्साहित हैं के इनके उत्साह से हम लोगों का आकंठ मनोरंजन हो रहा है। ये मित्र खुश हैं कि आहिन्दा जब कभी सास-ससुर का नाम भूलेंगे तो गूगल महान् की मदद ले लेंगे। जिस दांपत्य अनुशासन में बेचारे अबतक अपने विवाह की निर्विघ्न  20-25 वर्षगांठ मना चुके हैं उसे सुचारु रखने के लिए यह आवश्यक है । जबकि दुर्भाग्य से ये दोनों ही नाम उन्हें अक्सर नहीं याद रह पाते। सुन्दर सालियों के नाम में ऐसी कोई समस्या नहीं है। तब ऐसे ससुराल शासित परिवार में इन पति का क्या बनता होगा यह सहज ही कल्पना योग्य है। अब उन्हें कौन समझाए Ok Google बेचारा भी ऐसा कोई मैथिल पंजियार नहीं है कि शव कुलीनों के सभी खतियान कान के नीचे रखता हो। यानी वह स्वनामधन्यों का ही व्यौरा रखता है। वह कुछेक सीमितों बारे में ही आपको बताने का कष्ट करता है,किसी साधारण झा चौधरी या पाठक सिंह का नहीं। अर्थात क्या आपके साथ ससुर भी कम से कम श्रीमान धर्मेंद्र जी और कम से कम मालिनी जी की तरह की हैसियत के हों तभी गूगल जी आपको तवज्जो देंगे। अन्यथा सास और ससुर का नाम भूलने के दुष्परिणाम से आपको अपने स्तर पर ही सलटना होगा ! अब किसी साधारण तुच्छ किसान परिवार के एक बुजुर्ग दंपति का भला Google कितना ख्याल रखें? इतने बड़े लोकतंत्र की इतनी संवेदनशील सरकार की व्यवस्था और महक़मे तो बेचारे किसानों की खबर रखी नहीं पाते और यह बेचारा Google एक छोटे से बक्से में यह मशीन इतने-इतने किसानों के पीछे कहां तक भागती फिरेगी ! फिर भी भला हो पत्रकारों का ही कि वह जगह कथा इन किसानों की आत्महत्या पर शोक श्रद्धांजलि टाइप समाचार छापते रहते हैं। अन्यथा तो साधारण लोगों को अपने जैसे साधारण की आत्महत्याओं के बारे में जान पाना भी मुश्किल ! अतः सहानुभूति चाहिए।
    पत्रकारिता में भी इधर एक नई क़िस्म के नाटक वाले क्लाइमेक्स-तत्त्व आने लगे हैं।घटना या समाचारों का क्लाइमेक्स अब संसद-विधानसभाओं या महज़ ऐसी ही किन्हीं निर्णायक संस्थाओं में ही नहीं होता बल्कि यह पत्रकारिता में भी संभव हो गया है। अभी भले यदाकदा है परंतु इसका भविष्य इसमें बहुत ही सुनहरा उज्ज्वल और सुनिश्चित है !
लीजिए, कहां चला गया मैं भी। फोटो की बात थी...
   इधर कुछ दिनों से देखने में यह आ रहा है कि कोई एक फोटो ही देश बन जा रही है ! देश कोई जनता के दु:ख सुख या समस्या के कारण देश नहीं है,उस देश के एक विशेष व्यक्ति की फोटो के कारण देश बन जाता है। और सो यह भी आवश्यक नहीं कि सिर्फ उस देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति जी के कारण ! नहीं, किसी जिला परिषद के सदस्य के भी कारण हो सकता है। आकाशवाणी पटना के दिनों में मुझे याद है कि 'आर्यावर्त्त' अखबार में जो बेचारा हम लोगों का इकलौता आर्यावर्त महान था,उसमें किन्हीं एक मछली विभाग - जिसका सरकारी नाम-’मत्स्य पालन विभाग’ था,और किसी अवसर विशेष पर अपने संदेश की रिकार्डिंग कराते समय जब उक्त विभाग के अध्यक्ष जी चौथी बार मत्स्य शब्द का उच्चारण मतस्य मतस्य करते रहे तब आखिरकार रेडियो के अभागे प्रोड्यूसर ने  अनधिकृत रूप से जनहित में उसका नाम बदल कर ‘मछली पालन विभाग’ कर दिया और पूर्व सांसद महोदय से मछली पालन विभाग’ बुलवाने में सफलता भी पाई। अब यह फोटो कांड उन्हीं महोदय का है !  महान आर्यावर्त्त में 'मत्स्य पालन के विकास में उनके ऐतिहासिक योगदान का सरकारी समाचार तो उनके नाम के साथ छप गया लेकिन उनकी फोटो नहीं छप पाई ! अब सोचिए,अध्यक्ष की फोटो नहीं छपी जो एक सम्मानित सांसद भी थे।यह तो एक लोकतांत्रिक अपराध ही था,और सो भी अपने इस स्वतंत्र देश का इमर्जेंसी आभासी स्वर्ण काल विकास शील हो रहा था ! सांसद सत्तासीन दल ! बाल-बच्चे, वृद्ध मां-बापदार बेचारे समाचार संपादक की तो नौकरी जाने पर ! अब वह हाय-हाय करने लगा। वह तो कहिए कि पराड़कर महान परम्परा के श्रीकांत ठाकुर विद्यालंकार जी जैसे संपादक थे,जो क़द में अकेले 2-3 मुख्यमंत्रियों के बराबर पड़ते थे सो ग़रीब की नौकरी बची।
   तो चिन्मय ने दुस्साहस किया है। एक तो वो महामना ट्रंप नाम भूले और ऊपर से इस पर लिख भी डाला। ग़नीमत है कि वह एक व्यक्ति हैं, विशेष चाहे जितने भी हों। कहीं जो वह कोई देश हुए होते ! देश क्या कोई एक प्रान्त भी होते तो उन पर हमले की भी तैयारी हो सकती थी !
     बतौर पत्रकार वह अपनी जान हथेली पर लेकर लिखा करें। कोई हर्ज नहीं। हालांकि उनको सावधानी बरतने मैं फिर भी कहूंगा ही। परंतु स्वतंत्र पत्रकार हैं। स्वतंत्रता बरतते हैं। मगर हां देश तो सर्वोपरि है। और जो अपने ऐसे अच्छे दिनों के साथ विश्व गुरु होने के आदर्श प्रयाण पंथ पर अग्रसर हो चुका है और इस महाशक्ति मित्र राष्ट्र का सौजन्य स्नेही है,उस देश का सवतंत्र पत्रकार होकर ट्रंप का पूरा नाम भूलेंगे तो कैसे चलेगा भाई ?  
   देश को जरूर सोचें।देश को जरूर सोचते हैं भी आप। तब हां, इसका क्या करिए कि आज बिना जान हथेली पर लिए देश के लिए कुछ सोचा जा भी कहां सकता है ?
    अब यह तो लोकतंत्र है ! और इसका शोभा-सुंदर है!
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-गंगेश गुंजन 22 मई 2018

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