🪻🪻। मेरे समकालीन रचनाकारो !
•
मेरे कुछ समकालीन और प्रतिभाशाली लेखक-कवि का वर्तमान लेखन इतना विरक्त करता है कि कई दफ़े दिल करता है उन्हें कह दूँ कि अब वे अपने प्राप्त साहित्यिक यश की रक्षा करें और ‘कुछ भी’ के बल पर यों ही ‘कुछ भी’ लिखना- कहना बन्द कर देना चाहिए। कारण कि जिनकी बोलती,नाचती-गाती और कहती हुई प्रासंगिक रचनाएंँ पढ़ता आया हूँ उन्हीं की कलम से ऐसी उथली राजनीति, छिछला संकुचित धर्म-कर्म बोध और विकलांग जातीय ग्रंथि के नाम पर ऐसी ऐसी गूंगी,लंगड़ी और कुरूप लिखते जाना और सो दिनचर्या की तरह ताबरतोड़ फेसबुक समेत ऐसे तमाम माध्यमों पर लगभग रोज़ चिपकाते चलना बेचैन और विरक्त करता रहता है।फेसबुक इस अर्थ में बेहद पकाऊ हो गया है।
उन्हें कह ही नहीं पाता मैं। अब आज अभी यह शैली अपनाई है और अनुरोध कर रहा हूँ ‘विश्राम लो मित्र! हुआ। बहुत हुआ,अब विश्राम ही लो!’
यदि मेरे वैसे रचनाकार मित्र भी इसी तरह मुझे कहें तो मैं इसपर आदर पूर्वक विचार करूँगा,आत्मालोचन करूँगा और सप्रसंग कर गुज़रना ही चाहूंँगा।
🌵😔🌵
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडे.