Saturday, December 30, 2023

...बदले नहीं तो जी लिए...

                     ⚡
  वक़्त और हालात से घबरा गये
तो जी लिए
  यार के व्यवहार से उकता गये तो
जी लिए।

  बदलना आदत है क़ुदरत की वो
बदलेगी अभी
  तुम भी जो उसकी तरह बदले
नहीं तो जी लिए।

  कौन है जो यह समझता है नहीं
ख़ुद को ख़ुदा
  रह गये इन्सान यूँ ही उम्र भर तो
जी लिए।

  काट दी जाए ज़ुबांँ और बोलना
हो लाज़िमी
  वक़्त पर चीख़े नहीं जो जिस्म से           तो जी लिए।

  रूठना फिर मनाना फिर रूठ
जाना यार का
  भूल से भी जो लगाया दिल से
फिर तो जी लिए।

  बहुत कुछ बदले हुए इस दौर में
वक़्ते मिज़ाज
  इन्क़लाबी तरबिअत बदली नहीं
तो जी लिए।
                             💥 

                      गंगेश गुंजन 
                  #उचितवक्ताडेस्क।

Friday, December 29, 2023

तीन दो पँतियाँ

                       🌕
    सब के हम स्वामी बन जाएँ                      कर लें सब अपने ही अधीन
    इस जुनून में दुनिया भर ही                      ठना रहा युद्ध सब दिन।
                          •

   है  यहाँ  ये  वो वहाँ सहमा हुआ
   हाय मेरे वक़्त को ये क्या हुआ।

   ख़ौफ़ का आलम कहाँ से कहांँ तक
   दिख नहीं पाये मगर फैला हुआ।
                     •🌓•                                             गंगेश गुंजन 
           #उचितवक्ताडेस्क।

Wednesday, December 27, 2023

सपने का बोझ

क्या सपने का बोझ लिए फिरता है        अपने सीने पर,

जंग जी़स्त की है भरोसा रख ख़ुद पर, पसीने पर। 

                       •                                                  गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क

ग़ज़लनुमा

•                  
     तीखा  पानी  पीया  है
     तब यह मीठा गाया है।
                  •
     ऐसे तो मैं चुप ही था
     छेड़ा तब बतलाया है।
                  •
     रिश्ता ही क्या मौसम से
     सब ने मुझे सताया है।
                  •
     नाटक ख़ूब सियासी है
     इक दूजे को छकाया है।
                   •
     पर तू है रब कितना ख़ूब
     मेरा  दोस्त  बनाया है।
                  ।•।                                                 गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, December 26, 2023

स्वार्थी मनुष्य

        दूसरा शायद ही कोई प्राणी । 

पृथ्वी पर सचमुच मनुष्य के जैसा दूसरा कोई प्राणी नहीं है।यह स्वार्थी तो आकाश के आँसू बहने पर, वर्षा मंगल गाने लगता है।            

            गंगेश गुंजन,२१.१०.'२३.                       #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, December 25, 2023

दो पंतिया

जन्नत में आकर भी हमको दिल न लगा एक पल के लिए
साथ नहीं हो अपना तो क्या जन्नत और क्या है धरती।
                        ••
                   गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Wednesday, December 20, 2023

दोस्त बैठा हो कहीं...

     बेकली में इन्तिहा तक हम गये
     दोस्त बैठा हो कहीं रूठा हुआ।

                  गंगेश गुंजन
            #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, December 19, 2023

मुफ़लिस की नींदें

    मुफ़लिसी में एक तो आराम है
    रहज़नों से बेख़बर सोना हुआ।
 
             गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, December 16, 2023

कोशिशें

हर्ज़ क्या है देख लेंगे और बाज़ी खेल कर
हारता है हौसला या जीतती हैं कोशिशें।

                  गंगेश गुंजन
            #उचितवक्ताडेस्क।

Friday, December 15, 2023

विकास की माया

••               लोक आ लोक !

किछु लोक पैघ होइत छथि।किछु लोक पैघ बनैत छथि। होइ आ बनैए मे पेंच छैक। से बुद्धि मनुष्य कें समय सुझबै छैक जीवनक अनुभव यात्रा मे। जकरा सुझा जाइत छैक तकरा देखाइयो पड़ैत छैक।

   किछु लोक अपने देखैत छथि। बेसी गोटय लोकक देखाओल देखैत छथि।  

  ओना तँ कला मात्र मे किन्तु साहित्य मे एकर बोध निजी धरि सीमित नहिं रहि क’ सामाजिक भ’ जाइत छैक। सैह उत्तर दायित्वक बोध लेखक सोझाँ असल चुनौती रहैत छैक। तें ‘रचब’ आ ‘फोकला’ फोड़ब (लीखब) देखार भ’ जाइत छैक। स्वाभाविके जे देर सबेर पाठक, समाज तथा लोकबुद्धि मे सेहो ई सब टा बात आबिए जाइ छैक।••

               गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।

Thursday, December 14, 2023

आकाशवाणी भवन का वह ऊषा-काल ...

                        । 📕।

 आकाशवाणी भवन का वह ऊषा-काल,डॉ.आर.के.माहेश्वरी और प्रेस क्लब!
                     🌼
    तब ऐसा ज़माना कहांँ था !
आजकल तो चैनेलों पर जनता के सम्मुख समाचार भी मानो किसी ब्यूटी पार्लर से पूरे मेकअप में, वस्त्राभूषणों से सजधज,बन-ठन कर उपस्थित होते हैं। साधारण आँख-कान को मुश्किल से ही समझ में आने लायक। सो असल समाचार पहचानना हो तो आपको प्रेसक्लब में बैठना होगा।
   परम प्रबुद्ध जनों से भरे प्रेस क्लब जैसे सम्भ्रांत स्थान पर पहुँचना साधारण लोगों के लिए कहाँ सम्भव ?
  प्रेस क्लब से मुझे याद आए डॉक्टर आर.के.माहेश्वरी जी। आकाशवाणी के सेवानिवृत्त चीफ़ प्रोड्यूसर।मुझे उनके अधीन बहुत दिनों तक काम करने का सौभाग्यशाली तनावपूर्ण अवसर मिला। संक्षेप में वे ऐसे व्यक्ति थे जिनका अटल बिहारी वाजपेई जी जैसे लोगों से सीधा संवाद था। जबकि तनिक भी राजनीतिक लोग नहीं लगते थे। रहते तो वे राज्य सभा सांसद की एक शोभा अवश्य हुए होते। उस माहौल में भी ऐसी पैठ और पूछ थी। बहरहाल,
  माहेश्वरी जी आकाशवाणी की अपनी घरेलू राजनीति के जो मुख्यतः प्रोग्राम अफसरी और स्टाफ आर्टिस्ट के बीच प्रबल रूप से सक्रिय थी उसमें स्टाफ आर्टिस्ट के क़द्दावर नेता थे और सामान्यत: लोग उनसे पंगा लेने से बचने में ही भलाई समझते थे। डा.माहेश्वरी केन्द्रीय हिंदी वार्ता के एक वरिष्ठ उच्चाधिकारी थे। बिना विवाद के रहकर जीवन जीना उन्हें बिल्कुल पसन्द नहीं था। अपने से वरिष्ठ भी किन्हीं न किन्हीं उच्चाधिकारी से उनकी ठनी ही रहती थी। समकक्षों में तो रोज़ मर्रा।
या यूँ कहें कि ठाने भी रहते थे। डीजी तक से। लेकिन फिर भी तनाव में मैंने उन्हें शायद ही कभी देखा। उनकी हँसी और ग़ुस्से में अद्भुत सहकारी सामंजस्य था। उनके व्यंग्य और सराहना की मुद्रा में विलक्षण घालमेल रहता। सम्मुख आदमी दुविधा में ही रह जाय कि महोदय प्रसन्न हैं आपसे या रुष्ट ?अंततः इसका पता लगाना कठिन। ख़ैर,
और आकाशवाणी में इतने वर्षों के अनुभव में मैंने देखा डा.माहेश्वरी अपनी तरह के अकेले अनोखे ऐसे व्यक्ति थे जो दुनियावी समझ और मूल्यांकन के हिसाब से बहुत विशेष नहीं लगने साथ ही प्रबंधन और प्रशासन के असहयोग के बावजूद अपने साथियों और अपनी टीम से श्रेष्ठ से श्रेष्ठ काम आसानी से करवा लिया करते थे।अनूठा प्रबंधन कौशल था उनमें। सहज विनोद भाव में याद करें तो पूरे आकाशवाणी तंत्र में वह अपनी तरह के सुनामी ही थे। सो याद है उनके बारे में ज्यादातर लोग सकारात्मक भाव नहीं रखते थे। लेकिन उनके सम्मुख उन्हीं अच्छे- अच्छे को भी मैंने झुका हुआ ही पाया। अभी एक प्रसंग याद आया।   लंच-वंच के दौरान आम तौर से उनके चैम्बर में बैठक बाज़ी हो जाती थी।यूनियन संबंधित फ़रियादी लोगों के अलावे कई बार दिल्ली केन्द्र निदेशकभी होतीं या होते।
कभी हम लोग बैठे थे जिसमें बारी-बारी से कुछ विशेष लोग भी होते ही थे। एक आध जो अति वरिष्ठ थे लेकिन उनकी गोष्ठी में लगभग नियम पूर्वक आया करते थे /आया करती थीं जहाँ एक दायरे में ‘ईगो युद्ध’ के दाव पेंच, रणनीति ,संरचना के चर्चे होते थे। ऐसे में हम दोनों (मैं और स.नि.ब्रजराज तिवारी जी जो तब उनके स.नि.हुआ करते थे) निर्लिप्त भाव से ख़ामोश बैठे रहते।
   उस दिन किन्हीं वरिष्ठ व्यक्ति को आमंत्रित करने की बात हो रही थी जोकि किसी सामयिक राजनीतिक कारणों से आकाशवाणी से रुष्ट चल रहे थे। वे सज्जन विशेष सिद्धान्तवादी प्रचारित थे।लेकिन मुझे अपने विश्वस्त सूत्र से यथार्थ कुछ-कुछ मालूम था। आप तो जानते ही हैं कि सभी प्रकृति के कार्यो की अपनी जमात भी होती ही है । बल्कि सब जानते हैं। जमात विशेष के लोगों की प्रकृति भी लगभग सभी जानते रहते हैं।
माहेश्वरी जी ने जब आदेशात्मक ढंग से उन्हें आमंत्रित करने को कहा तो मैंने अपनी असमर्थता दिखाई।अब माहेश्वरी जी तो माहेश्वरी जी ठहरे। ललकार दिया -
‘कैसा जनसम्पर्क है आपका ? आखिर इतने पुराने सधे हुए रेडियो के अधिकारी हैं आप।’अब वास्तविकता बताना जरूरी हो गया।
‘ऐसी कोई बात नहीं है डॉक्टर साहब। काम तो हो जाएगा किंतु उनकी एक ख़ास कमज़ोरी है…और उसका प्रावधान तो अपने यहाँ है नहीं।’
मैंने कहा। इशारा समझे। और गर्वीले भाव में अकड़ तक बड़े ताव से,जैसा उनका स्वभाव था और व्यक्तित्व, बोले :
‘बोलो तो उन्हें प्रेस क्लब में उससे नहलवा दूंँ।’
और अपनी चुनौती भरी पनखौक आधी हँसी के साथ सम्मुख लोगों को कृतार्थ भाव से देखा।
तभी डीडीजी मधुकर लेले साहेब का फ़ोन आ गया। दोनों की बैठकियाँ अलग से चुपचाप थीं।
आकाशवाणी भवन का वह ऊषा-काल था। क्यों था ? यह दास्तां रहा तो कभी उस पर भी कहने का मन है।    ••
              -गंगेश गुंजन                                 #उचितवक्ताडेस्क।१३.१२.'२३.

Monday, December 11, 2023

बने-ठने समाचार !

             बन-ठन कर समाचार !
                          •
   चैनेलों पर जनता के सम्मुख समाचार भी आजकल मानो किसी ब्यूटी पार्लर से पूरे मेकअप में, वस्त्राभूषणों से सजधज कर प्रस्तुत होते हैं। साधारण आँख-कानों को मुश्किल से ही समझ में आने लायक। सो असल समाचार पहचानना हो,सच या बनावटी ख़बर में फासला जानने की लालसा हो तो आपको प्रेसक्लब में बैठना होगा।
   और धन्य लोकतन्त्र, परम प्रबुद्ध जनों से भरे प्रेस क्लब जैसे सम्भ्रांत परिसर में पहुँचना साधारण लोगों के लिए कहाँ सम्भव ?
                       ⚙️
                   गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Thursday, December 7, 2023

दिल्ली को दरबार कहेंगे

एक नहीं सौ बार कहेंगे                        सुने न तो हुँकार कहेंगे।

थोथे लफ़्ज़ सुने मत जाओ                       सौ क्या एक हज़ार कहेंगे।

ऐसी जो दुनिया की हालत।                      रहना तो दुश्वार कहेंगे।

इन्स्टाग्राम फेसबुक रिश्ते                      अब बस्ती बाज़ार कहेंगे।

कहते होंं कुछ,कुछ करते जो                रहबर को मक्कार कहेंगे।

अबकी भी वैसी ही बीती                    आगे फिर स्वीकार रहेंगे ?

धुंधला दिखलाता जो दर्पण                  तोड़ उसे बेकार कहेंगे।

 कबतक ओछी राजनीति पर             लानत बारम्बार कहेंगे।

सबकुछ यों सहते जाने पर                    ख़ुद को भी धिक्कार कहेंगे।

ऐसे लोकतंत्र में जीना                        दिल्ली को दरबार कहेंगे।  ••

               गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, November 20, 2023

दु:ख प्रश्न करता है

 📕          दुःख प्रश्न उठाता है  !
   मनुष्य को प्राप्त सुखों के औचित्य पर दु:ख सवाल करने आता है। इसी कारण मानवीय जीवन-मूल्य नैतिक अनुशासन में स्थित रह कर क्रियाशील रहते आये।
                        💥
                   गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Friday, November 17, 2023

क्रिकेट पर मेरे उद्गार !

🌸                                              🌸
               क्रिकेट पर उद्गार !
   मैं क्रिकेट पर लिखने बैठा हूँ ! मैं और क्रिकेट? पर शुरू ही कर रहा हूंँ तभी मुझे इस एक और बात का अनुमानित आनंद आ रहा है कि जो मेरे पुराने रेडियो के साथी हैं और सौभाग्य से उनमें बचे हुए  भी,कुछ एक को तो मैं अभी यह लिखते हुए जैसे सद्य: देख रहा हूंँ -एस एन मिश्र जी, धीरंजन मालवे जी और कनाडा निवासी अजय कुमार और भी कई हैं जो क्रिकेट पर मेरे इस उद्गार को लिखे जाने की बात पर ही स्नेह दुष्ट आनंद से भर रहे होंगे : ‘क्रिकेटद्रोही गुंजन जी और क्रिकेट पर उद्गार? क्या  हो गया इन्हें ? रिटायरमेंट के बाद तबीअत ठीक नहीं है क्या? और हों भी क्यों न। क्रिकेट से मेरा वैसा ही रिश्ता कुख्यात रहा जैसे अंग्रेजी से। तत्त्वत: मुझे दोनों एक ही भावना और मानसिकता की सामन्ती रुचि और व्यवहार लगते थे। आलम यह था की एक बार तो एन. सिकदर जी (बाद में शायद एडीजी हुए) जैसे पटना केंद्र के निदेशक और मुझसे बहुत स्नेह रखने वाले अधिकारी से बहस जैसी स्थिति तक बन गई। जब कि वे ठहरे परम क्रिकेट भक्त।
  भागलपुर केन्द्र में तत्कालीन पीको सु.भू.मुखर्जी मुझे इशारा करते हुए चेताये जा रहे थे एस डी के साथ ऐसे बात क्यों कर रहे हो? बाद में इसी बातके लिए साथी मित्र ज्वाला प्रसाद जी (अब नहीं रहे) ने भी भविष्य में सावधान रहने समझाया था। लेकिन भावुकता में ही सही,घटना तो घट चुकी थी‌ ।
   हुआ यह था के हर तिमाही होने वाली समन्वय समिति की मीटिंग में सिकदर साहब निदेशक एक मीटिंगमें आकाशवाणी भागलपुर आए थे।
तब भागलपुर शायद उप केन्द्र की भी हैसियत वाला नहीं था।मात्र २५ मिनट का खेती गृहस्थी प्रसारण और 30 या 35 मिनट युववाणी (अब मुझे ठीक से उतना स्मरण नहीं) कार्यक्रम होता था।बाकी पूरा पटना से रिले करता था। उसमें भी समस्या थी कि मुख्य शहर से आठ दस किलोमीटर बाहर बियाबान में खड़े ट्रान्समीटर में ही किसी तरह का एक तिकोना स्टूडियो था जहाँ से प्रसारण होता था,बिजली सप्लाई की इतनी किल्लत और अनियमितता थी की कई बार तो रिकॉर्ड किए हुए कार्यक्रम प्रसारित रह जाते थे।अगले ही दिन मेरे सामने अक्सर बड़ी मासूम सी समस्या खड़ी हो जाती। बिजली बंद रहने के कारण निर्धारित दिन और समय पर जिस छात्र, नौजवान की वार्ता प्रसारित नहीं हो पाती उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती कि ‘तुम झूठ बोले थे कि रेडियो पर बोलोगे।’ बेचारा बालक मुंंह लटकाए सामने आकर खड़ा हो जाय और उसका दिल रखनेके लिए कई बार तो मुझे कालेज के उसके प्राचार्य तक को सफाई में उस बिजली गाथा की खेद चिठ्ठी लिखनी पड़ती थी। लाचारी भी थी। क्योंकि प्रसारण की दूसरी तिथि भी कभी इस चपेट में आ ही जाया करती…
ख़ैर,इतने अनिश्चित प्रसारण काल में बिहार के सभी आकाशवाणी केंद्रों की समन्वय समिति मीटिंग में कार्यक्रम -योजनाएंँ हो रही थीं। किसी एक निर्णय पर प्रश्नोत्तरी जैसी बातचीत हो गई थी।सिकदर जी ने यह सुझाव दिया ‘सम्भावित क्रिकेट मैच का आंँखों देखा हाल युवावाणी कार्यक्रम में भी प्रसारित किया जाए।’
युववाणी के उस अनिश्चित,सीमित प्रसारण की अवधि में भी क्रिकेट मैच के आंखों देखा हाल का वह सुझाव मुझे प्रिय तो क्या लगता,सहन ही नहीं हुआ और कह सकते हैं कि जो उस युग में प्रशासनिक दुस्साहस ही था,मैंने कर डाला। उनसे कहा :
‘महोदय यह निर्णय भागलपुर जैसी जगह के लिए जहां पर हर तरह से युवावर्ग लोग पिछड़े हुए कम और अभाव ग्रस्त हैं, निम्न वित्त परिवार के ही अधिक। युववाणी के लिए मुझे कितनी मुश्किल से तो ३०-३५ मिनट का समय मिलता है और वह भी बिजली महारानी की अनिश्चितता के साथ उसे भी क्रिकेट प्रसारण में दे देना न्याय संगत और मुनासिब नहीं होगा।’ किंचित नाराज तो हुए वे। लेकिन तर्क किया कि
‘नहीं क्रिकेट बहुत पापुलर गेम है। सब को अच्छा लगेगा। बहुत फायदा होगा।  उनको बढ़ाने में ही मदद मिलेगी उनको उनके व्यक्तित्व में विकास होगा’ इत्यादि जो क्रिकेट पक्ष में पारंपरिक तर्क हुआ करते थे।
मैंने एक बार फिर अति विनम्रता से इस पर
असहमति दिखाई तो समझाने की किंचित सख़्ती से बोले : ‘गुंजन जी आप एक बात क्यों नहीं समझता है कि क्रिकेट के चलते लड़के सिनेमा तक देखना छोड़ देता है।’ मुझे उनका यह तर्क ठीक तो लगा परंतु वहाँ की स्थानीय वास्तविकताओं के कारण उपयुक्त नहीं सो स्वीकार नहीं हुआ। और मैंने फिर प्रतिवाद में कहा कि
‘महोदय यह तो वैसा ही हुआ जैसे शराब पीना छुड़वाने के लिए किसी को भांँग की लत लगा दी जाय।’  इस पर एक क्षण के लिए उनकी भृकुटी तन गई। याद है मुझे। किंतु यह भी कहूंँगा कि वह समय दूसरा था। निदेशकों का प्रशासनिक आतंक तो बहुत था परंतु कुछ निदेशकों की संवेदनशीलता और निर्णय में समावेशी उदारता भी बहुत थी।वे तर्कसंगत स्तर तक सहनशील भी बहुत थे क्योंकि मैं उस समय महज़ एक नया नया हिंदी का प्रोड्यूसर और राजधानी पटना केंद्र के निदेशक से इस पर बहस कर रहा हूंँ जो खुद ही अपने साथियों के साथ रोज़ टोपी पहनकर क्रिकेट खेलते हों !
लेकिन वह मान गए। और मैं भागलपुर युववाणी का वह समय क्रिकेट आंँखों देखा हाल प्रसारित होने से बचा ले गया।
  अब अभी मित्र मिश्रा जी खुश होते होंगे क्योंकि वह स्वयं बहुत अच्छे खिलाड़ी भी हैं और क्रिकेट समर्पित हैं। यह संदर्भ है पिछले दिन भारत और न्यूजीलैंड के सेमीफाइनल मैच का जिसमें भारत ने जीत हासिल कर फ़ाइनल में प्रवेश कर लिया है। मेरा चित्त प्रसन्न है।
अब आजकल बैठे-बैठे कुछ भी कर सकता हूं तो क्रिकेट भी देख सकता हूंँ।

फुटबॉल को तो स्वभावत: देखता रहा हूँ। अपने पिता के साथ सैंडिस कम्पाउंड (भागलपुर) में बहुत देखे। स्कूली जीवन भर स्कूल के लिए खेला भी। अब मेरे सुपुत्र भी परम फुटबॉल प्रेमी हैं। साथ ही मेरे दोनों नाती भी। पोता तो बाकायदा अपने स्कूल टीम का खिलाड़ी भी है।
क्या खेल है फुटबॉल भी !
   लेकिन इधर क्रिकेट देखने में भी अब एक खास सलंग्नता का अनुभव अवश्य महसूस होता है जो मेरे लिए एक नया एहसास है‌। लेकिन वह सीमित है।इस खेल में भी अपने खिलाड़ियों और देश की जीत भर के लिए।हांँ इसकी मियाद ज़रूर बढ़ती जा रही है।मौका मिलता है तो देखता ही हूं। सुविधा भी हो गई है। वैसे क्रिकेट,जैसा कि मैंने कहा मेरा प्रिय कभी नहीं रहा। यह गंभीरता तो दिल्ली आने के बाद (क्योंकि यहां आकर तो अच्छे अच्छे को बिगड़ते देर नहीं लगती..) और फिर जनसत्ता अख़बार मे प्रभाष जोशी जी जैसे विशिष्ट सम्पादक के क्रिकेट-लेखन में उनके प्रेम को पढ़ पढ़ कर हुआ।उन्होंने तो इस खेल को दार्शनिक ऊंँचाई तक दे दी। इस तबीअत के साथ लिखते थे कि जिसे नहीं भी प्रिय हो और पढ़ना न चाहे वो भी पढ़ जाए । सचिन तेंदुलकर जी को और किन लोगों ने क्रिकेट का भगवान का यह तो मुझे नहीं मालूम लेकिन यह स्मरण है कि उन्हें ईश्वर बनाने वाले प्रभाष जोशी जी मुख्य हैं।
और अभी वर्तमान में,संयोग से मेरे एक बहुत अच्छे स्नेही साहित्यकार विचारक प्रोफेसर कर्मेंदु शिशिर जी।कर्मेंदु के क्रिकेट उद्गार पढ़ता हूं तो लगता रहता है जैसे कोई बहुत अच्छी रूहानी कविता पढ़ रहा होऊँ। क्रिकेट प्रसंग पर इतने मनोयोगी विवेचना और उत्साह से लिखते हैं कर्मेंदु जी।
  लेकिन यह मुझे बिल्कुल बुरा लगता है जब लगभग हमारे सभी संचार माध्यम प्राइवेट टीवी के लोग पराजय पर पाकिस्तान की अनवरत भर्त्सना करते रहते हैं। और वह भी बहुत निर्मम शब्दावली में यह अनुचित है। यह मेरे मन में रहता है कि हम आपस में भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश आपस में जीते-हारें उसकी तो खुशी और निराशा हो परंतु उनमें से पाकिस्तान या कोई एक किसी विदेशी क्रिकेट टीम से हारे तो मुझे पसंद नहीं। पाकिस्तान को भी विदेशी टीम हराये सो मेरे अभिमान को लगता है।और उसके बारे में ह्रदयहीन चर्चा तो मुझे असह्य होती है।
बहरहाल।
  प्रिय मेरा फुटबॉल रहा है।समय हो तो कबड्डी।और यह कह सकता हूं कि हॉकी। लेकिन दिलचस्प है कि देखने जानने से पहले मैंने ध्यानचंद जी के बारे में
परतंत्र भारत के गौरव की मार्मिक कहानी पढ़ ली थी। हाकी बाद में। कहीं वीडियो- ऑडियो सुनने देखने का मौका लगा तो हाकी भी बहुत प्रिय लगती है। उसमें भी जब स्त्री टीम खेलती है ! अहा,अजब जीवंत और कलात्मक खेल लगता है। जैसे बहुत बड़ा अच्छा साहित्य पढ़ने का सुख मिल रहा हो। आनंद आता है।
    पर मैं क्रिकेट की बात कर रहा था तो कल मैंने देखा कि रोहित शर्मा जी ने बहुत जल्दी-जल्दी बहुत सुंदर स्थिति तक लाकर  जीत की आशा दिला दी और यूं ही कुछ भी सोच सकता हूं तो मैंने यह माना कि फिलहाल अगले बॉल में रोहित शर्मा जी अर्धशतक जरूर कर लेंगे। लीजिए मेरा ऐसा सोचना था और अगले बाल पर वह आउट हो गए। लो: मेरा सोचना तो अपशकुन हो गया।थोड़ा और देखने के बाद जीत संदेह के दायरे में आता देख निराश भाव से देखना बन्द कर कुछ और में व्यस्त हो गया।अन्य कुछ कुछ देखने- सुनने लगा । टीवी पर जो भी जैसा ही उपलब्ध है यूट्यूब पर मैं क्या कर सकता हूं ।समान भाव से देख लेता हूं अनाप-शनाप भी।क्या कर सकता हूं ।
    भोजन करने बैठा तो इस बीच मेरी बेटी का अपनी मां को रांची से टेलीफोन आ गया। उसने मेरे बारे में पूछा कहा ‘पिताजी तो मैच देख रहे होंगे।भारत तो जीत रहा है’ इधर से सरिता जी ने कहा कि ‘नहीं-नहीं अभी मैच नहीं देख रहे हैं। स्वाभाविक ही सूचना से मुझे ख़ुशी होने लगी और भोजन से उठकर मैं फिर बैठ गया टीवी के सामने।
वाकई जिस निराशा में मैंने देखना बंद किया था और यह मान लिया था कि अब हार जाएंगे हम। उसके विपरीत इतनी इतनी देर में ऐसी स्थिति पलट जाएगी इसकी मुझे तनिक भी आशा नहीं थी सो खुशी हुई। खैर उसके बाद परिणाम तो आप लोग जानते ही हैं,अब तो सभी जानते हैं।
   आश्चर्य नहीं कि भारत को क्रिकेट का चक्रवर्ती सम्राट बनते हुए देखने अब यह फाइनल मुक़ाबला भी ज़रूर देखने बैठूँगा मिश्रा जी 😃।
                     🌼
               गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क। 

Wednesday, October 25, 2023

मन भेल जे कही...

                        🌀       

               मन भेल जे कही ...
   भावुक लोक कें पहिने स्वविवेक तैयार करबे व्यावहारिक बात होइछ। तकरा बादे सामाजिक मंच पर किछु कहबाक विचार करब उचित बुझाइत छैक।
    कोनो नेनाक बाललीला ककरा प्रिय नहिं लगतैक।किन्तु तहिना कोनो वयस्क लोकक नेनपन अनसोहाँत आ अप्रिय बुझाइत छैक। एत' धरि जे भाषाक स्वाभिमान पर्यंत यदि कोनो प्रौढ़ व्यक्ति अधबोलिया बाजय लागथि तँ असहज लगैत छैक।
   दोसर उदाहरण मैथिली फेसबुक पर बेसी देखाइ पड़त आइ-कालि।
                       ।🌼।                                                गंगेश गुंजन 
               #उचितवक्ताडेस्क। 

Tuesday, October 24, 2023

जबतक कोई

                       🐾
   जबतक कोई आदमी बिछड़ा हुआ मूल्यवान अपना सबकुछ नहीं भूल जाता और दवा खाने का तय समय,तबतक वह बीमार कैसे हुआ ? और मृत तो बिल्कुल भी
नहीं।
               गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Friday, September 22, 2023

ग़़ज़लनुमा : दिल आया उपकार किया

                  🍂
     दिल आया उपकार किया
     वाहियात बेकार किया।

     दाग़ दाग़ हैं अक्षर अक्षर 
     कवि ने जो दरबार किया।

     लेकर आया था सौग़ात 
     किसने अस्वीकार किया।

    रुत ने भी मिहनत,क़द को
    खुल कर कभी न प्यार किया।

     राजनीति को क्या कहिए
     ऐसा बंँटा ढार किया।

     बहुत अपशकुन लगता है
     उसने जो व्यवहार किया।

     वापिस पैर नही रक्खा 
     कितना तो मनुहार किया।

     किस पर रोएगी कविता 
     किसने कारोबार किया।

     दरबारी मधुशाला भर
     मैंने  देसी  ढार  पिया।
                    📓
              गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, September 19, 2023

ग़ज़लनुमा : दरिया की तो थी कुछ और

                 •📔•
  दरिया की तो थी कुछ और
साहिल की फ़ितरत कुछ और।

  पांँवों में लिपटी राहों की,
क़दमों की क़िस्मत कुछ और।

  बदकारी के अपने जलवे
सहकारी हिम्मत कुछ और।

  बर्पा थी बदनामी ऊपर
सच को थी ज़िल्लत कुछ और।

  मंज़िल मिल जाने की अपनी
दिक़्कत रहगुज़री कुछ और।

  ख़ासी थीं वो बदक़िस्मतियाँ
पर ख़ुशक़िस्मत की कुछ और।

  कोरे काग़ज़ का काग़ज था
लिखी इबारत की कुछ और।

  कामयाब क़िस्से की अपनी
नाकामे हसरत कुछ और।

  लिखे रह गये बार-बार ख़त
मिलने की क़ुदरत कुछ और।

  उपजाते अनाज खेतों की
इन्साँ की मिहनत कुछ और।

  ज़ंजीरों की अपनी ताक़त
बाज़ू की ताक़त कुछ और।
                  ।📔।                                           गंगेश गुंजन।                                    #उचितवक्ताडेस्क।

Sunday, September 10, 2023

ग़़ज़लनुमा : जज़्बात भुनाते हो और ख़्वाब बुनाते हो

❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️ 

जज़्बात भुनाते हो और ख़्वाब बुनाते हो गाये हुए गाने गा इस तरह रिझाते हो।                     •                                     हो क्या गया है उनको क्यूंँ पूछ न आते हो तुमकोभी क्या हुआहै क्याहै कि छुपातेहो 

                     •
 जाते कहीं हो आकर कुछ और  बताते हो
तब भी है मुबारक कि महबूबको भाते हो।
                     •
  लाशों की इबारत में तारीख़ लिखाते हो
  कितने बड़े हुए तुम तेवर ये दिखाते हो।
                     •

फिर से वही वही सब फिर स्वप्न दिखातेहो
 नित नई बिसातें यार, कम्माल बिछाते हो।
                     •
ये बादलों की टिक्की अच्छी तो लगती है पावस की ऋतुके इस मंज़र से लुभाते हो।

                     •
 बाक़ी अभी समझ है पहचानती है जनता
 दीये उसी झांँसे के अबके भी जलाते हो।
                     •
  माहौल सिरजते हो मौक़े उगाहते हो
  लो ढेर मुबारक जो राजा को सुहाते हो।
                      •
              गंगेश गुंजन                                  #उचितवक्ताडेस्क।

Wednesday, September 6, 2023

अगर्चे चाहता था हमरो : ग़़ज़लनुमा

                     । 📔। 
    अगर्चे चाहता तो था हमको
    कभी बोला नहीं मगर इसको।

    यूँ तो ख़ुद ख़त थीं वो आँखें
    लिखा न,ज़ुबाँ से कहा मुझको।

    कहाँ हों ये बयाँ दुश्वारिए दिल
    मिले जो दोस्त उस-सा जिसको।

    भेजता बुत ही कर क्या जाता
    आदमी कर क्या मिला रब को।

    डरे  हैं  यूँ  फ़रेब से  गुंजन
    देखने लगे हैं डर कर सब को।
                     🌼
                गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।                                    ०६.०९.'२३.


Wednesday, August 30, 2023

सिलसिले टूटे थे जो फिर से : ग़ज़लनुमा

🌀।                📔               ।🌀
   सिलसिले टूटे थे जो  फिर से
   नये आग़ाज़  में  हुए फिर से।

   टूट ही तो चली थी अब उम्मीद
   एक दस्तक ने बचा दी फिर से।

   कोंपलें फूटी  हैं फिर  कुछ तो
   रूह में रुत है, ख़ुशबू फिर से।

   सुकूनदेह कितनी आहट है
   चलो,आयी तो है वो फिर से।

   अभी तो सुर में ही था सबकुछ
   अभी कुल हाथ में पत्थर फिर से।        

   कोई  बदले, बदले  मत बदले
   दिल ने ले ली है करवट फिर से।

   कोई मजबूर न होगा, मौसम 
   सबा आज़ाद चलेगी फिर से।   
                          .
                  गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, August 26, 2023

दो पंतिया

बुझ रहा हूँ सान्ध्य सूरज-सा              हरेक पल मैं
रात भर की रौशनी का देख लो
अब इन्तज़ाम।
                गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडूस्क।     
                 २७.०८.'२३.

Tuesday, August 22, 2023

दिल मुझको दरिया कर दे : दोपंतिया

❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️
                      .
   दिल मुझको दरिया कर दे और
   इरादा पत्थर कर
   इस पूरी धरती भर को एक
   मुकम्मल-सा घर कर।
                        २.
      देख लेते जो एक बार कभी
      मर न जाते होते क्यों हम भी।
                      🌕❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️
                गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।

Friday, August 18, 2023

ग़़ज़लनुमा : जैसे मेरा अवसरवादी बहुत पुराना यार

                  । 🌼। 
  जैसे मेरा अवसरवादी बहुत
  पुराना यार
  काल सत्य भी ऐन वक़्त पर ऐसे
  हुआ फ़रार।
                     *
  विपदा में तो सभी छोड़ जाते हैं
  अक्सर साथ
  रोज़ाने रिश्ते साथी पर तुम भी
  मेरे यार

  कल भी हो ही आये हो तुम फिर
  उसकी मजलिस से
  इख़्लाक़न सजदा भी करके
  आये हो दरबार।

  लफ़्ज़-लफ़्ज़़ फ़र्माते हो ज्यों
  दहके अंगारे हों
  ऐसे इन्क़लाब ही थोथे कर जाते
  हर बार।

  महज़ इसी लफ़्फाज़ी से गर
  जीती जाती जंग
  करती क्यों ईजाद सल्तनत रोज़
  नए हथियार।

  भोले मीठे प्यारे शब्द काम तो
  करते हैं
  झूठ इश्क़ में,ले-दे कर तो बहुत
  हुआ व्यापार

  गाली और फ़ज़ीहत की कविता
  लिख हो  इल्हाम भले
  सुल्तानों के समझाने काम आएँ
  इल्म औज़ार।     💥
                    गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।

Wednesday, August 16, 2023

जीने मरने का बोध

'कुछ नहीं करने' और 'कुछ नहीं कर सकने' के एहसास में जीने और मरने जैसा अन्तर है।
                  गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।                                 १६अगस्त,'२३.


Wednesday, August 9, 2023

राजनीति में पेड प्रतिक्रिया

                         🔥|
        पार्टियों में 'पेड' प्रतिक्रिया बेधड़क जारी है।कभी-कभी  साफ़ दिखाई देती है। वरना चालू समय की एक साधारण-सी राजनीतिक घटना का इतना तीक्ष्ण त्वरित विशेषीकरण और प्रबुद्ध बना डालने का ये ओजस्वी उछाह अच्छे-अच्छे तथाकथितों को भी यों बचकाना कैसे बना रहा होता।
   यह देखना विडंबना ही है।
                      💥
 [यह एक सामान्य जन-मन की भावना है]

                  गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।                                      १०.८.'२३

बोलबाला सब बाज़ार का है... ग़ज़लनुमा

🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈
  बोलबाला सब बाज़ार का है
  सिलसिला हर सू व्यापार का है।

  हुए इतिहास देश दुनिया सब
  आदमी बचा कारोबार का है।

  रहे कि चली जाये आदमीयत
  हाल जो वक़्ते शर्मसार का है।

  चली गई वफ़ा की वफ़ादारी
  रूप भी मीडिया अख़बार का है।

  सब से नाराज़ ही लगे है सब
  बन्द घर पड़ोसी सब द्वार का है।

  हैं सभी सरंजाम फिर एक बार
  अपने वोटर जन-विस्तार का है।

  फ़िक्र में ही हम अभी से रहते हैं
  अंदेशा सियासी संहार का है।

  वक़्त ये समझे समझाए कोई
  होशियारों से ख़बरदार का है।

  अब दुआओं से नहीं चलता काम
  मामला उसके इन्तज़ार का है।
                   ❄️।❄️

                 गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क

Friday, August 4, 2023

ग़ज़लनुमा : हम न रहेंगे तुम न रहोगे...

                     💥💥

हम न रहेंगे तुम भी नहीं जब वो भी नहीं रहेगा
सुन्दर ऋतुओंके हुलास पर चर्चे कौन करेगा।

कोई तो हो फ़िक्र करे इस झुलस रही फुलवाड़ी की
लोटे भर जल से भी इसको कौन आकर सींचेगा।                       

महिमा दलित स्त्री क्षत-विक्षत पर सब चुप रह जाएँगे 
पत्थर दिल नर-पशु-सभ्यों से कौन आकर पूछेगा।

हिंस्र हो चुकी इन्सानी तहज़ीब जानवर से बदतर
किस जादूगर रहवर का है इन्तज़ार जो बदलेगा।

अच्छा कुछ ही बाकी है अब यहाँ जहांँ रहते हैं हम
उसके जाने से तो ये इतना भी कहाँ बचेगा।

झुंँझलाएगा क्रोधित होगा तब ऐसी दुनिया पर कौन
लाल नील सपनों वाले मन की दुनिया कौन लाएगा।

जाते हो तो जा लो गुंजन मन बहलाने को कुछ दिन
टहल-बूल कर जल्दी लौट आओ तो ठीक रहेगा।

❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️
               गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।
              २६जुलाई,'२३ 

Tuesday, August 1, 2023

नाटकों का प्रारब्ध

📔    नाटकों का सामाजिक प्रारब्ध !

  कुछ बहुत आवश्यक पटकथा नाटकों को लिखे और कहे जाने के समान ही अपने योग्य रंगमंच भी नहीं मिल जाता।कुछ महान् तक तो अंतिम रिहर्सल के बाद भी अभिमन्चित नहीं हो पाये। परिवर्तन के इतिहास में जेपी आन्दोलन जैसा उपकारी आलेख भी स्टेज रिहर्सल हो कर ही रह गया ! जन-मन को आजतक उसके फाइनल प्रदर्शन का इन्तज़ार है।
     नाट्यालेखों का भी अपना- अपना सामाजिक प्रारब्ध होता है जैसे कुछ ख़ुदा टाईप नाट्य निर्देशकों का।
                       .
                गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, July 29, 2023

ग़़ज़लनुमा : कुछ ग़म के फ़साने थे

❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️

  कुछ ग़म के फ़साने थे
  कुछ खुशी के गाने थे।

  नक़ली हुए अब हम तो
  सच्चे थे अजाने थे।

  लगते  थे  सभी अपने
  सब कुछ ही सुहाने थे।

  प्यारे थे मगर कितने
  अपने जो बहाने थे ।

  अक्षर लिखे जतन से
  जब उसको पढ़ाने थे।

  मिलजुल के सभी सुन्दर
  जीवन के तराने थे।

  उसकी सदा भी आए
  मेरे भी बुलाने थे।

  मैं ही नहीं अकेला
  सब यार दीवाने थे।

  जाने वो कौन शम्मा
  जिसके कि परवाने थे।

  सब दफ़्न किताबों में
  एक उम्र ज़माने थे।

  हैरत में क्यूँ हैं गुंजन
  बनते तो सयाने थे।
                   •
           गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।
❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️

Saturday, July 22, 2023

आज की राजनीति : लोकबुद्धि में!

|                    🫂                     |          
   राजनीति आज : लोक-बुद्धि में
                     🌗
  रात और दिन की ठनी रह गई
  सब दिन टक्कर
  रही दोनों की दोनों ही से हैसियत
  बढ़कर
  रोज़ रात दिन को ही धत्ता दे छा
  जाती है
  मज़ाक़ उड़ाता है दिन उसका हर
  सुबह होकर।     .
                  गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।                              २१ जुलाई,२०२३.


Friday, July 21, 2023

लज्जा

                  लज्जा !
बनें शर्मिंन्दगियाँ सुनामी सागर तो बात भी                                                बाढ़ तो आती-जाती ही रहती है गाहे ब- गाहे।
                गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, July 8, 2023

ग़़ज़लनुमा : रखने भर अपनापन कर

❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️
  रखने भर अपनापन कर
  जो कर सच्चे दिल से कर।
                   •
  बहुतेरे  उलझे  मसले
  मत ओछे मसलों पे मर।
                   •
  कर मुमकिन अपनी हसरत
  क़त्ल मिरा क्यूँ कर के कर।
                  •
  बेशक़ कर बादशा'ही
  मेरी ख़ुद्दारी से डर।
                  •
  तय है उम्र सभी की तो
  समझ इसे क़ुदरत के घर।
                  •
  हो जो हो अब दो-दो हाथ
  कस ली है लोगों ने कमर।
                 •
  नींद अवामकी नाज़ुक़ है
  इसके जग जाने से डर।
                  •                ❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️                      गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।                             रचना ८जुलाई,२०२३.

Tuesday, July 4, 2023

कमसे कम चुटकी भर...

भूख महज़ रोटी से कभी कहाँ मिटती है  कमसे कम चुटकी भर भीतो नमक चाहिए।

                 गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, July 1, 2023

झूठ और सच जेल में

झूठ और सच निकलते हैं अब ज़मानत पर
मुसल्सल दोनों पड़े हैं पस्त हिम्मत जेल में।                                                                      गंगेश गुंजन                                  #उचितवक्ताडेस्क।

नमन 🙏 डा शिवनारायण सिंह जी।

💐
     ऐसे थे डा.शिवनारायण सिंह
     जी। तब ऐसा था पटना ! 

आज के दिन मैं बड़े आदर और उन बहुत से लाइलाज पूर्ण स्वस्थ हो गये पटना और बिहार के अनगिन मरीज़ों की ओर से बहुत कृतज्ञता पूर्वक -
   डा.शिवनारायण सिंह को नमन करता हूंँ ।
                    * गंगेश गुंजन                                  #उचितवक्ताडेस्क।

Thursday, June 29, 2023

आजकल मुश्किल में प्राण !

📔।       आजकल मुश्किल में प्राण !

 
   फेसबुक पर ऐसा घमासान है जैसे एक परिवार में विरासत और जायदाद को लेकर दो सगे भाइयों के बीच घमासान छिड़ा हो।मैं भी किसी सगे की तरह दुविधा में घिरा हूँ।अब मामला यह है कि देशज वाम और विदेशज वाम के बीच वैचारिक विरासत पर ऐसा अधिकार द्वन्द्व चल रहा है कि मैं भी हतप्रभ हूंँ। फेसबुक पृष्ठ टिप्पणी प्रति टिप्पणियों के बौछार से तर हैं। मेरे लिए तनिक और दुरूह है कारण कि इन ज्ञानियों में मैं थोड़ा कम पढ़ा-लिखा हूंँ। ये सभी परम विद्वान चिंतक,बुद्धिजीवी विचारक हैं। लेकिन फेसबुक साथी तो हूँ। इस समझ के साथ,मगर परेशानी तो मुझे भी बराबर है। किससे कहा जाय ?सो लाचारी मैंने एक तरह से अपनी यह समस्या फेसबुक सभागार में बोल दी है। अब संभव है कि मेरे जैसे के लिए भी कुछ हृदय में सहानुभूति हो,संभव है मेरे लिए और हिक़ारत हो,यह भी संभव कि मेरे लिए धिक्कार हो। मगर जो भी हो मैं अभी यह कह कर यहांँ थोड़ा मुक्त मन होना चाह रहा हूंँ। बस,अपना इतना ही स्वार्थ।             मुझे नहीं लगता याद दिलाने की ज़रूरत है कि फ़ेसबुक पर ये ज्ञान मान टिप्पणी-युद्ध किस ज्वलंत मुद्दे पर परवान चढ़ गया है और किस द्वन्द शिखर पर पहुंँचेगा। और वहाँ पहुँच कर क्या करेगा।
                      🔥📔🔥
                     गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Wednesday, June 28, 2023

परिवार और रंगमंच

परिवार का नाटक बिना रिहर्सल किस मज़े से मंचित होता है, जबकि रंगमंच के सामाजिक नाटकों में रिहर्सल अनिवार्य है।
                     ।🌼।                                            गंगेश गुंजन                    #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, June 24, 2023

किताबें कहती हैं कुछ और सरज़मीं पर और कुछ ...ग़़ज़लनुमा।

ग़ज़ल नुमा 

किताबों में और है और सरज़मीं पर और कुछ

कह रहे अख़बार कुछ तो सियासतदाँ और कुछ।


धुंँध ही हैं धुंँध हर जा घरों से बाहर तलक

फ़क़त शक़ शुब्हा है तारी हरेक सू न और कुछ।


रूह की सुनता नहीं शातिर समय में कोई अब 

बोलता कुछ और है निकले सदा है और कुछ


वक़्त के काँधे झुके हैं हादसों के बोझ से

इन थके क़दमों के आगे उलझनें हैं और कुछ


एक कश्ती है डवाँडोल कभी से मझधार में 

चाहते साहिल है कुछ चाहे य' दरिया और कुछ।


वक़्त की चिन्ता लिखी जा रही जो इस दौर में

इबारत रख़्शाँ है कुछ और क़लम कहती और कुछ।


मुबारक क्यों कह रहे मनहूस मंज़र पर मुझे

क्या फ़रेबे तबस्सुम है रहनुमा का और कुछ

             गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।                                  रचना २१/२५.०६.'२३.


Friday, June 23, 2023

भूखे मनुष्य और उसके अभाव को....

                      💥
  भूखे मनुष्य और उसके अभाव को पहले पड़ोसी और समाज पहचानता और कहता था। आजकल पत्रकार और अख़बार बतलाते हैं और मीडिया। हाँ समय-समय पर अपनी राजनीतिक आवश्यकता और नीयत से सरकारें अर्थात् सत्ता भी करती रहती है।                                    °°
               गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, June 17, 2023

वक़्त के हालात से घबरा गये तो जी लिए..(ग़ज़लनुमा)

🍂
वक़्त और हालात से घबरा गयेतो जी लिए                                              लोग के व्यवहार से उकता गयेतो जी लिए।

बदलना आदत है क़ुदरत की तो बदलेगी अभी
तुम भी जो उसकी तरह बदले नहीं तो जी लिए।

कौन है जो ये समझता है नहीं ख़ुद को ख़ुदा
रह गये इन्सान यूँ ही उम्र भर तो जी लिए।

काट दी जाए ज़ुबांँ और लाज़िमी हो बोलना
वक़्त पर चीख़े नहीं तब जिस्म से तो जी लिए।

रूठना फिर मनाना फिर रूठ जाना यार का
भूल से भी जो लगाया दिल से फिर तो जी लिए।

बहुत कुछ बदले हुए इस दौर में ज़ेह्न-ओ ज़बान
इन्क़लाबी तर्बियत* बदली नहीं तो जी लिए।

तुम नहीं समझे सियासी दौर ये तो सर्वनाश
जी चुके बदहाल बेबस लोग थे,तो जी लिए।  ••                                           
          *शिक्षा,सुधार,प्रशिक्षण,ट्रेनिंग।
                         •                
                   गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।

Thursday, June 15, 2023

ग़ज़लनुमा : ख़्वाबों का सब शीशमहल खंडहर होता है

                 🌈🌿
ख़्वाबोंका सब शीशमहल खंडहर
होता है
जो ज़मीन पर हो वो ही घर,घर
होता है।

वो क्या बोलेगा जो ख़ुदगर्ज़ी का
मारा
हरे भरे गाँव कर क़त्ल,शहर
होता है।

लाख खड़े कर लें मीनार-ओ-
ताजमहल
रहना तो हर इक का एक उमर
भर होता है।

सपने  को  मीठा  लगता है खारा
पानी
जितनी बहें आँख उतना सरवर
होता है।

अजब नहीं लोगों को भायें सुन्दर
सड़कें
ख़ास शख़्सको पर्वत और शिखर
लगता है।

क़दम नहीं उठ पाते क्यों उन सब
के आगे
बढ़ने में लोगों को कितना डर
लगता है।
                       .
                गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, June 13, 2023

ग़ज़लनुमा : कहते-कहते थक जाता है झुठ्ठा भी

                 । 🔥 ।
कहते-कहते थक जाता है झुठ्ठा भी
सुनते-सुनते पक जाता है  सच्चा भी।

अथक क़दम रहने वाले जो हुए हौसले
उनके आगे रुक जाता है रस्ता भी।

जिन आँखों का सपना बासी हो न कभी
उनकी फ़ितरत नाकामिए विवशता भी।

रिश्ते हैं तो होंगे भी जब-तब मायूस
लेकिन कर क़ायम रख मधुर सरसता भी।

हिम्मत हो जज़्बा जुनूँ मक़्सद भी हो
एक आज़ाद ज़ेह्न समाजी दस्ता* भी।
    

  *फ़ौज की टुकड़ी,गारद।
                   💥
               गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, June 12, 2023

ग़ज़लनुमा : शौक़ से इश्क़ इब्तिदा करिए

❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️       
  शौक़ से इश्क़ इब्तिदा करिए
  ख़ुद को ख़ुद से ही जुदा करिए।

  आप बदनाम हैं जफ़ा के लिए
  कभी यों वफ़ा बाख़ुदा करिए।

  जान उसने भी दे दी आख़िर
  रस्म ही मान कर विदा करिए।

  एक  से  एक हैं सियासतदाँ
  हाय किस-किस पे जाँ फ़िदा करिए। 

  बहुत हुआ ख़्वाबों से खेल
  जिस्म से जान अलविदा करिए।

❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️
                 गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।


Saturday, June 10, 2023

ग़ज़लनुमा : एक बार फिर से देखूँ कर के

                   ❄️
  एक बार फिर से देखूँ कर के
  मौत को देखूँ  मैं  यूँ  मर  के।

  रह गए डर कर जीते अबतक
  रहूँ अब मैं भला क्यूँ डर के।

  अनकिये रह न जायें वो सब
  कहाँ जायें आधा  यूँ कर के।

  हो रहा कुछ न कुछ कैसा-वैसा
  सुबह से आंँख दायीं क्यूँ फड़के।

  हज़ारों कोस पर बोला कोई
  यहाँ दिल्ली का दिल क्यूँ धड़के।
                    🪷
               गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, June 6, 2023

कविता कोना

              कविता कोना

कुछ कवि रैक से किताब चुन लेने कीतरह उतार सकते हैं कविता                        कुछ लाइटर से सिगरेट जला लेने की तरह कविता धूक सकते हैं ।

कुछ सिन्हा लाइब्रेरी के बाहर जमा देने   वाली सर्द रात में सीट पर सिकुड़े बैठे  पुस्तकालय बन्द होने की ताक में        ऊंँघते-चौंकते राह देखते रिक्शा वाले की बची हुई इस उम्मीद में,किसी पढ़ाकू बाबू सवारी की प्रतीक्षा में भी।                  किसी लॉज के बन्द कमरे में                  देर तक रखी रोटी पर ठंढा होते हुए नमक से निकाल सकते हैं- मुँह और हाथ के बीच थकान की दूरी को कविता समान।

  इस समय सब कुछ में अजब गड्ड मड्ड हो    रहा है सबकुछ !

  रन बटोरने की तरह कर रहे हैं कुछ कवि    कविता और कतिपय बुद्धिमान गण

  फुटबॉल के गोल दागने की तरह रिकॉर्ड तोड़ आलोचना।

  माया सुन्दरी अदृश्य राजनीति एक ही स्टेडियम में एक साथ क्रिकेट,कुश्ती,    हॉकी-फुटबॉल के खेल रही है और गँवई चरगोधियांँ कोटपीस- ताश।                झाँव-झाँव मचा हुआ है टीवी चैनेलों पर धुर्झार !                                           सभी कह रहे हैं सभी को जो हो              हो जाएगा आर-पार अबके बार।         बाज़ार सेंसेक्स पर टुकटुकी लगाये       दामी से दामी गुटका फाँक रहा है।       इन्हीं के बीच इधर से उधर

 यहांँ से वहांँ चूहादानी में फँसे चूहे की तरह रेंगती हुई कविता निकाल रहे हैं कुछ।किंकर्तव्यविमूढ़ों की आबादी दिनानुदिन महँगाई की तरह पसर रही है।                  बहुत से कवि,                                   इनसे भी बेहतर कविता बरत रहे हैं और तमाम पोस्टरों से भर रहे हैं                  आम जन का असंतोष, विस्फोटी आक्रोश  जन्तर मन्तर के वृक्ष ओ दीवार में।

कुछ सुजान तो जन्तर मन्तर की कविता  उठा कर फ़्लैट रजिस्ट्री कराने की तरह  साधते हुए प्रेस क्लबों में सुलगा सकते हैं नितान्त वक़्ती कविता -

 देर रात तक ढाल सकते हैं आज की                  जीवन-कला !

                 गंगेश गुंजन                                       #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, May 30, 2023

ग़ज़लनुमा : वो ही सब दुहराना था

                  ग़ज़लनुमा 

वो  ही  सब दुहराना था

महज़ इसलिए आना था।

उन ही गुलदस्तों में फिर 

बासी फूल  सजाना था।

हाँफ रहा था क़िस्सा एक 

इक आग़ाज़ फ़साना था।

क्या जादू था वक़्ते सफ़र

किसकी अता ख़ज़ाना था।

था क़ुसूर किसका,किस पर 

आयद सब जुर्माना था।

उस दिन झूठ थका,हारा

उसका ख़त्म बहाना था।

राजनीति क्यूँकर लाजिम

जनता को फुसलाना था।

एजेंडा - एजेंडा सब 

बाक़ी अब भरमाना था।

उड़ती रेतों में वो कौन 

फूलों का दीवाना था।

              गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, May 27, 2023

ग़ज़लनुमा : कल की सोचेंगे अब कल

   कल  की अब सोचेंगे कल

  हो सियासत में भले हलचल।


  सब की साँसें अटकी हैं

  नेता कौन आये अव्वल।


  कुर्सी  कौन  सम्भाले है

  कौन करेगा इसे दख़ल।


  बेचारी जनता को आस 

  सबदल की जो चली पहल।


  घी से हैं बाज़ार भरे

  बँटते हैं सस्ते कंबल।


  आर पार का हल्ला है 

  रखियो साथी क़दम सम्भल।


  फुनगी पर बैठे चिंतक 

  ठूँठ पेड़ में गिनते फल।

             गंगेश गुंजन                                       #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, May 20, 2023

ग़ज़लनुमा: जिसकी भी तैयारी है...

💥💥💥💥💥💥💥💥💥💥💥💥

जिनकी भी  तैयारी है                      अबकी हमरी बारी है।

बहुत बने है चतुर सुजान                        होनी हार क़रारी है।

सच कहिए तो सब अपना                    ख़ुद मज़दूर दिहारी है।

देशी मसले लगते  दो                        महन्थ और बुख़ारी है।

ऊँचा ही सुनता है न्याय              पच्चीस,तीस हज़ारी है।

इतना ऊँचा गया मगर                      जनता की हक़मारी है।

सकते में दक्षिण,पूरब                          आगे एक बिहारी है ।

सोती नहीं कोई बस्ती                     रतजग्गा  बीमारी  है।

दो धारी हों वार भले                          हमरी भी तैयारी  है।

सकते में दक्षिण,पूरब                          आगे एक बिहारी है ।

कौन वाम है दक्षिण कौन                  दुविधा ये दोधारी है।

सोच समझ का जंगल मुल्क              कोमल प्राण शिकारी है।

💥💥💥💥💥💥💥💥💥💥💥💥

   गंगेश गुंजन                                          #उचितवक्ताडेस्क।                                   २१ मई,२०२३.

Tuesday, May 16, 2023

सबसे अच्छा याद का मौसम ?

🌨️🌨️।              मौसम              ।🌨️🌨️


        सबसे अच्छा याद का मौसम

        उसके बाद बाद का मौसम।


        ज़रा नहीं पछताबा हो ग़म

        पाकर खो जाने का मौसम।


        पंछी पर्वत नदी देश की 

        तारीख़े आज़ाद का मौसम।


        माटी पानी हवा में  सबकुछ 

        मेरे गांँव, फ़सल का मौसम।


        आँगन में बरसात झमाझम                    काग़ज़ क़लम दवात का मौसम।


        ज़रा ज़रा सी बात में अनबन

        बिना शर्त इक़रार का मौसम।


        कैसा ख़ौफ़नाक़ कुल मंज़र

        दो साले संसार का मौसम।

        

        दिल आख़िर कहता है लेकिन

        इक उसके आने का मौसम।   


        लेकिन मौसम दो ही मौसम

        मिलने न मिलने का मौसम।


        हो जो हासिल हर सू सब को 

        अहले  आज़ादी  का मौसम।

                         🍀

                    गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।                                    (पुनः प्रेषित)

Thursday, May 4, 2023

कालगति और लोग

कुछ लोग कहते-कहते मर जाते हैं।

कुछ लोग सुनते-सुनते मर जाते हैं।

कुछ लोग करते-करते मर जाते हैं।

कुछ लोग  रहते-रहते  मर जाते हैं।

कुछ लोग सहते-सहते मर जाते हैं।


ये सब समाज और मनुष्यमात्र की जीवन- दशा बदलने की नीयत और विचार से संकल्प स्वर में भाषा-साहित्यों में ही अधिक होते हैं।

आज भी दिन भर कुछ लोग                                     पढ़ते-पढ़ते सो जाएंँगे ।      अपने-अपने इतिहास का गह्वर हो जाएँगे।

                ५ मई,२०२३.                               गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।

Sunday, April 30, 2023

ग़ज़ल नुमा : मई दिवस

कोई जो बतलाता हमको कबतक और चलना होगा

पाँव पाँव,जंगल-पर्वत,दरिया-सागर करना होगा।

कितने मासूमों की बस्ती कितने पिंजर बन्द परिन्दे

ख़ौफ़ ओ ख़तर में क़ैद आदमी औ जल्लाद ज़माना होगा।

किस बेरहमी से आएगा पेश और बरतेगा कैसे

नाम मेरा लेगा ममता (ख़ुलूस) से या बिल्कुल बेगाना होगा 

होता है ऐसा भी सफ़र काश हुआ होता इल्हाम

तपती रेतों पर नंगे पाँवों इतना चलना होगा।ऐसे वक़्तों का भी हमको इल्म रहा होता तो कैसे

होंगी सब बीमार दोस्तियाँ सेहतमंद करना होगा।

कहने को तो कहते ही रहते हैं सभी सियासतदान

लेकिन क्या बदला है ढाँचा-ढर्रा,सभी बदलना होगा।

मुझको तो रहना न आया रखता अपने घर में कौन

आख़िर तो चलना था आगे,अभी और चलना होगा।

निकलेंगे तो एक बार फिर अपने नेपथ्यों से लोग

हम भी निकलेंगें देखेंगे जो भी हो,जो होना होगा।

                  गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

आग लगी तो लोग

🏡


              आग लगी तो लोग !

                       🌾! 🌾

     घर में आग लगी तो,व्यवसायी 

     अपनी पूंँजी-हीरे जवाहरात समेटकर 

     बचाने में लगा।

     बंधक-व्योपारी संदूक में धरे अंगूठाछाप और

     दस्तखतों के दस्तावेज़।

     चित्रकार बनी-अधबनी अपनी पेंटिंग,

     लेखक लिखे हुए अपने काग़ज़ात-कलम,

     गाने के साज़ संभाल में पागल होकर जुटा

     गायक कलाकार।

     दरवाज़ा खोलने के लिए पिता दौड़ा 

     बिस्तर में बेख़ौफ़ निश्चिंत सो रहे 

     शिशु की तरफ़ जी-जान से लपकी

          -स्त्री ! 

                               **                                                  गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Thursday, April 27, 2023

निरीह है दु:ख !

                   निरीह है दु:ख !

मामूली से मामूली सुख बड़े से बड़े दु:ख को पकने ही नहीं देता उसको सयाना होने ही नहीं देता है। दु:ख को अपना दास बना कर रखता है। तिस पर भी हम हैं कि बेचारे दु:ख को ही कोसते रहते हैं। 

                     गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, April 18, 2023

ग़ज़लनुमा : उसको गर पर्वाह नहीं है तू भी...

🍂 .                                  🍂 .        


  उसको गर पर्वाह नहीं है तू भी

 कुछ पर्वाह न कर

  जाने दे रिश्ता सब ऐसा भूले से

 भी निबाह न कर।


  दौलत-दौलत खेल चला है जीवन

 के बाज़ारों में

  शामिल होगा और जीतेगा तू

 फ़िज़ूल की चाह न कर।


  करने दे करने वालों को क़त्लों पर

 भी जयकारे

 इन्सानी निस्बत से ऐ दिल मत हो

 शामिल वाह न कर।


  छुपा-सजा कर ख़ाब बचा रक्खे हैं

 काले सायों से

  थोड़ी सी हिम्मत कर और, बचा के

  रख,तबाह न कर।


  क्यों लगता हूँ कभी-कभी मैं भी

 झूठे अख़बारों में 

  अबभी सूखे पेड़ नहीं हैं,हमको तो 

 अफ़वाह न कर।


  गाना रोना एक बराबर लगता है

 इस मंज़र में 

  हो पड़ोस पर शुबहा,लेकिन सब

 पर शक्की निगाह न कर।

                         .

                  गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।


Friday, April 14, 2023

इस कुतरे जाते हुए समय में

      इस कुतरे जाते हुए समय में !

नहीं चाहिए वह सब कुछ जो छूट गया ।

या चला गया। प्यारा भी था,

काम का भी था,और सुविधाओं का भी ,

नहीं दरकार अब।

    अब नहीं चाहिए वो सब ।

आ भी जायँ तो हमारे नए घर में कहाँ रहेंगे ? जगह कहांँ है यहाँ ? यहाँ तो

चमकदार ब्रांँड नामों के साथ ऐसी-ऐसी अनाप-शनाप की भी नयी चीजें  

बड़े जतन से बहुत सजा कर रखी हुई हैं

 अब बीच में उन्हें कहांँ पर कैसे रखा जा सकता है ?

नहीं चाहिए जो छूट गया,खो गया या कहीं रास्ते में रह गया।

इतनी कम जगह में अब कहांँ रखेंगे उसी अनुराग के साथ ?

   अब तो जो भी जगह है जितनी,

किसी असंतोष,किसी बनावटी विद्रोह, किसी नकली भाषा,किसी टूटे-फूटे सपने  कोई छद्म मुस्कान लिए घेरे हुई है ।

कुछ टूटे हुए साथ हैं,

धर्म और संस्कृति,भाषा और इतिहास- भूगोल पर कुछ बिखरी हुई अधलिखी किताबें हैं

बीच-बीच में दुश्चिंताओं के चूहे निश्चिंत होकर रेंगते हुए । 

ऐसा नहीं कि घर नहीं है,

बक़ायदा घर है।घर में घर का,सब कुछ है

वैसा ही रसोई घर भी है,

अनाज,नमक तेल मसाले भी हैं

हरी सब्जियांँ भी लेकिन सब की सब जैसे किसी न किसी बेमन के लगाव से सजी रखी हुई हैं पैकेटों और प्लास्टिक डिब्बों में

    अब इस बीच में मैं कहा रखूंँगा जो कहीं रह गए,पीछे छूट गए या ख़ुद नहीं आए मेरे साथ।

अभी तो सामने जो समय है और जिसमें  कोई भविष्य पनप रहा हो शायद ।

ज़्यादा कुछ तो अशांति में दबे हैं -

परिवेश,पर्यावरण पर अनिश्चय और संदेह का साम्राज्य है।बुद्धि-विचारों पर अविश्वास और अनास्था की सल्तनत है। 

    टमटम में जुते घोड़े वाली आंँखों पर पट्टी है बंँधी हुई,आगे बहुत दूर चलना है 

ज़्यादा चलने वाले को कहांँ जाना है पता भी नहीं। तो 

जो छूट गया, रह गया या जो खुद नहीं आया उन्हें अब इसमें लाकर कहाँ रखूँ। यहाँ रखना कितना मुश्किल हो गया है ख़ास कर तरीक़े से रखना !

उस प्यार और मोहब्बत से,सलीक़े से 

इन्हें सँवार कर रखना तो और भी मुश्किल  है बल्कि नामुमकिन !


और वो जुमला- मुमकिन !

किसी के कह देने से सब मुमकिन है,

सब,

     मुमकिन नहीं हो जाता।                                             🍂🍂

               गंगेश गुंजन                                       #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, April 4, 2023

ग़ज़ल नुमा : कहाँ अब ठौर कोई रहा जाना !

                     🌼.
     कहांँ अब ठौर कोई रहा जाना
     किसे फ़ुर्सत कि रहता जाना आना।

     सियासत जानती है ठीक से ये
     किसे कब और है कितना मिटाना।
    
     उसे दुःख दर्द के लोगों से मतलब
     जिसे आता है सब अपना गँवाना।

     तिज़ारत में अलग हो ख़ास लेकिन
     अपन रिश्ता तो है पूरा निभाना।

     बहुत दु:ख में हों और अकेले तो
     वायदा था  इक दूजे का बुलाना।

     बड़ी थी सर्द उस शब हम टिके थे
     बक़ाया क़र्ज़ है उसका चुकाना।

      गंगेश गुंजन

Thursday, March 30, 2023

मनुष्य का मन मस्तिष्क : आज के पेन ड्राइव का पहला प्रारूप

                      ⚡⚡  
 मनुष्य का मन मस्तिष्क : आज के              पेन ड्राइव का पहला प्रारूप                                             *    
इसकेे बारे में एक प्रसंग सुनाता हूंँ।    कहते हैं कि सृष्टि करते हुए ब्रह्मा ने दिव्य दृष्टि से यह  देखा कि चाहे कितनी भी बड़ी पृथ्वी हो, इस पर कितनी ही जगह क्यों न रहे लेकिन मौजूद इतने सारे प्राणी इतनी सारी प्राकृतिक संपदाओं में मनुष्य की मेधा से नित-नित और नयी वस्तुएँ बन कर आती रहेंगी। नए-नए अनुभव,ज्ञान विज्ञान  विकसित होते जाएँगे और एक दिन ऐसा आएगा कि यह धरती मनुष्य के कृतित्वों से रंच मात्र भी खाली नहीं बचेगी। विचार और चीज़ों से पूरी पृथ्वी पट जाएगी।जबकि ज्ञान व्याकुल मनुष्य के मस्तिष्क का प्रसार होता ही चला जाएगा। स्वभाव के अनुरूप आदमी सुख-सुविधा के उपाय में,आविष्कार करते ही रहेंगे।नयी वस्तुएँ बनती ही रहेंगी। ऐसे में उन्हें सहेजने-रखने की भारी समस्या होगी।  महा विपदा की तरह। तब एक ऐसे गोदाम की भी ज़रूरत होगी जिसमें सबकुछ इस प्रकार क़रीने रखे जायँ कि ज़रूरत इच्छा होते ही उसे निकाल कर उपयोग किया जा सके। तो उन्होंने सोचा एक ऐसा भंडार गृह तो अवश्य ही होना चाहिए जिसमें उन सभी का क्रमवार समावेश हो सके जो पृथ्वी धरती पर नहीं अँट पाएँ। उन्हें भी उपयुक्त ढंग से सुरक्षित-संरक्षित किया जा सके। उस स्थान की संभावनाओं पर विचार किया गया। तब उन्होंने बहुत चिंतन-मनन एवं अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ गहन विचार-विमर्श के बाद यह तय किया कि ऐसे भांडार की सभी गुंजाइश मानव मन में विद्यमान है अतः भांडार इसे ही बनाया जाय। यही एक है जो अपने सूक्ष्म स्थान में सृष्टि का सब कुछ समो भी लेगा और अनन्त काल तक उन्हें सिलसिले से संभालता जाएगा। मनुष्य की सृजन प्रक्रिया को निरन्तर सुचारु बनाये रखेगा। इस प्रकार मानव के निरंतर उत्कर्ष में भी कोई बाधा नहीं आएगी। इस मंथन के बाद ब्रह्मा ने मनुष्य का साँचा बनाया और उसमें भी विशेष मनुष्य के मन-मस्तिष्क का यह सुव्यवस्थित रूप रचा जो आज के इस विराट डिजिटल युग का पहला पेनड्राइव हुआ।     आप क्या सोचते हैं ?                  
              गंगेश गुंजन।                                     #उचितवक्ताडेस्क।
        ( पोस्ट पुनः दिया गया) 

Monday, March 27, 2023

विश्व नाटक दिन: दोपात्रीय नाटक

🌿⚡।         कोरोना बुलेटिन।           ⚡ 🌿
                    २७मार्च,२०२०.
                          🌺
        आज दो पात्रीय संवाद-नाट्य।
    आज विश्व रंगमंच दिवस पर विशेष भेंट: 
               ।। दृश्य:एक मात्र ।।
 
   [चारों ओर से बंद ड्राइंग रूम में बैठे आमने-
    सामने क़ैदीनुमा दो लोग।१.बेचैन बुज़ुर्ग और
   २.बेफ़िक्र युवक। यानी दादा-पोता ]
                         *
    ( बहुत व्याकुलता से, खीझ और गुस्से में) : 
    दादा : पता नहीं यह अभागा कब जायेगा
    यहांँ से।
    पोता : यह कोई जिस्म का फोड़ा नहीं ना है
    दादू कि एक-दो बारी मरहम लगा देने से चला
    जाये।आप  परेशान क्यों हो रहे हैं? चला
    जाएगा न।
    दादा : अरे मगर कब जाएगा ? चला जाएगा।
    (और भी ज़्यादा ग़ुस्साते और ख़ीझते ) ।
   पोता:  वीसा ख़त्म होते ही चला जाएगा।
   (इत्मीनान से मुस्कुराते हुए )...
   दादा: अब इसका वीसा से क्या मतलब है?
   (चिढ़ कर)
   पोता: है न दादू। यह इम्पोर्टेड बीमारी है।
   जानते ही हो। लेकिन कोई नहीं। आपके
   ज़माने में वो
   एक गाना बड़ा हिट हुआ था न ?
   दादा: (बे मन से,उदासीन भाव से) कौन-सा
   गाना ?         
   पोता : जाएगा-आ-आ जाएगा-आ-आ
   जाएगा जाने वाला, जाएगा-आ-आ....
   दादा : अरे वह आयेगा आयेगा था। जायेगा
   जायेगा नहीं...(तनिक सहज होते हुए गाना
   सुधार कर सही किया तो पोते ने मुस्कराते हुए
   कहा-)
   पोता: हां दादू। मगर अब आपका आयेगा
   वाला सीन-सिक्वेंस बदल गया। यह तो
   जाएगा-जाएगा वाला है।
   (और काल्पनिक गिटार छेड़ता हुआ बड़ी अदा
   से तरन्नुम में गाने लगता है-जाएगा जायेगा
   जायेगा जाने वाला जायेगा।इस पर )
   दादा: बहुत शैतान हो गया है तू ...रुक।
  ( वह थप्पड़ दिखा कर उसकी ओर लपकने
   लगते हैं और गाते-गाते ही पोता ड्राइंगरूम का
   पर्दा समेटने लगता है। सामने बाल्कनी दीखने
   लगता है। सचमुच में गिटार की कोई मीठी धुन
   सुनाई पड़ती है। )
                        🌿🌳🌿

                   गंगेश गुंजन 

 🦚    #उचितवक्ताडेस्क प्रस्तुति   🦚

विश्व रंगमंच दिवस पर : राजधानी में रंगमंच

.       राजधानी का रंगमंच             .
                     •
 सिद्ध से सिद्ध प्रसिद्ध अभिनेता
 देर तक मंच पर विराज जाय तो
 अभिनय-मूक हो ही सकता है,
 पटकथा और चरित्र के हक में मंच
 पर रहना ही हो अपरिहार्य तो 
 एक सीमा तक ही चुप रहकर 
 रह सकता है- किरदार ।
 चुप्पी साधने का अभिनय करते
 हुए इतना थक जाता है कि 
 उबासियों का बिस्तर हो जाता है ।
 सो लेते हैं उसी पर कितने।आराम
 से
 पता भी नहीं चलता उसे।
 महान हो मंच पर कितना भी 
 अभिनेता
 देर तक रहकर भद्द ही पिटवाता है 
 हूट कर दिए जाने तक झेल जाय 
 तो वह उत्कृष्ट कलाकार विदूषक
 हो जाता है
 कुछ कला-प्रवीण आलोचक
 मानते ही हैं, 
 अभिनय प्रवण परिपक्व ही चरम
 पर अपने परिणत प्रतिष्ठित होता
 है, श्रेष्ठ विदूषक!
    सिर्फ़ सियासत का मामला नहीं
 है यह।
                      •
 प्रार्थना में उस चरम पर पहुंँचने से
 पहले
 अपनी भूमिका सही सलामत कर
 गुज़रे,
 देर तक मंच पर रखा न जाय,
 अभिनय-विभोर होने पर वह भूल
 जाता-
    रंगमंच पर है !
 लेखक निर्देशक से प्रार्थना करते हैं
 दया करके तब लेखक निर्देशक 
 पत्थर मूरत कर देता है
 अकसर कर देता है,लेकिन देखें
 दुर्भाग्य-
 पत्थर मूर्ति भी तो यंत्र तकनीकीय 
 होना हुआ नहीं रहता इसलिए और 
 हास्यास्पद और दयनीय हो जाता
 है
 पटकथा की मृत्यु में कितना ही
 जमना चाह ले
 पुतलियांँ बारीक डगमगाती ही रह
 गईं  
 प्रकाश-व्यवस्था ने सार्वजनिक कर
 दीं उसकी आंँखें।
 प्रकाश जहांँ भी हो,करता है
 प्रकाश का ही काम
 यहाँ रंगकर्म का यही तकाजा, 
 अभ्यास और अदा है।
 इस थिएटर में अखिल भारत है
 अभिमंचित हर नाटक यहांँ
 अखिल भारतीय है ! 
 अखिल वैश्विक इरादे और
 अभियान पर !
                   •
 दया करें या दुःख यहांँ
 एक से एक दिग्गज बड़े लोग जो-
 व्यवसाय उद्योगी से लेकर कतिपय
 प्रबौद्धिक लेखक-कवि भी संभव
 हैं-भ्रष्ट चौपट!
 सत्ता-नियंता-नायकों का सफल
 प्रतिपक्ष मंच-अभिनय 
 कर करके विभूषित विदूषक हैं! 
 चालू है संगठित रंगकर्म ।
                    •
 राष्ट्र् के स्टील-फ्रीज़्ड अभिनेता
 कई मदों में सम्मान सुशोभित
 वरिष्ठ नागरिकों में इत्मीनान से हैं
 बैठे चैन की उबासियांँ ले रहे हैं। 
 मंच आकर्षक लाल अंधेरे में डूब
 रहा है,
 सुपूर्वाभ्यसित परदा कलात्मक
 उत्कर्ष पर गिरने को है
 दिव्य रहस्य के स्याह आलोक में   
                      •
     एक अभी-अभी जवान हुआ 
 पांँचवांँ अट्ठारह साल का नौजवान
 हिकारत से पूछता है-
                  ‘ये लोग कौन हैं ?’ 
                     ••
              गंगेश गुंजन     
        #उचितवक्ताडेस्क।

Friday, March 24, 2023

ग़ज़ल नुमा : दुःख दूजे में बाँट रहे हैं ।

                    🐾
      दु:ख दूजों में बाँट रहे हैं
      जीवन अपना काट रहे हैं।

      कितनों को आ-जाते देखा
      हम नावों के घाट रहे हैं।

      वक़्त अगर्चे वो भी गुज़रे
      बीमारों की खाट रहे हैं।

      वे तो ओछे दामों पर ही
      लगने वाली हाट रहे हैं।

      एक तराज़ू के दो पलड़े
      वस्तु एक पर बाट रहे हैं।

      गाँव एक ही दो दुनियाएंँ
      भूखी इक,के ठाट रहे हैं।

      हाथ नहीं उठता कुछ माँगें
      वे कल तक जो लाट रहे हैं।
                       .
               गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, March 20, 2023

ग़ज़लनुमा : घर-घर तन्हा है घर में

 ।•।           ग़ज़लनुमा         ।•।

         घर-घर तन्हा है घर में
         तन्हा हैं हम भी घर‌ में।

         बाहर कम बेचैनी है 
         ज़्यादा तो है अन्दर में।

         दरिया लगा सूखने तो
         चिन्ता बढ़ी समन्दर में।

         कल रहता था वो जैसे
         अब जीते हैं हम डर में।

        नाच वही सब लगता है
        फ़र्क़ ज़रा है बन्दर में।

        भाभी गर बदली है कुछ
        दूरी आई देवर में।

        ऐसे नहीं छूटता वो
        भूल हुई सब धर-फर में।

        मामूली भी मसला क्यों 
        दीखे किसी बवन्डर में।

        बदल रहे हैं सब रिश्ते       
        जनता-नेता-अफ़सर में।
   
        बुझा-बुझा रहता है सच
        झूठ ख़ूब है चर-फर में।
                       •
                गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।   
               [पुनः प्रेषित]

Monday, March 6, 2023

इतनी सी जगह

📕            इतनी-सी जगह

  मिट्टी थी,पानी था,आग थी,
आकाश था,और आवश्यक हवा!
ये सब एक थाली भर अंँगनई में
पूरे वजूद में थे।
  डेढ़ कोठरी,हम तीन भाई,तीन
बहनें,
  हमारी जननी थीं।
घैलची,*  बस्ता रखने की तख्ती।
हम सब के लिए अपनी-अपनी
सांँस लेने की जगह थी।
  घुंँटन शब्द से परिचय नहीं
बहुत छोटी खिड़कियों से बहुत
प्रकाश आता था।
  आधी कोठरी के एकान्त को भी
लेता था अपनी ज़द में जहाँ,
यक्ष्मा ग्रस्त बड़ी दीदी अब-तब के
हाल में मामूली बिस्तर में फ़र्श पर
पड़ी रहतीं।      
  बर्तन धोते-धोते बीच-बीच में दीदी
को पूछती हुई ज़रा-सी ऊँची माँ की आवाज़ थी-
'कुछ चाहिए तो नहीं नीलम? बस
चुटकी भर। मैं आई।'
उस उतनी जगह में बीमार का नाम
सबसे नीरोग सम्बोधन था।
  मुक्ति के लिए उत्कंठित,सचेष्ट
ग़रीबी की शान्त ग़ुलामी
आज से कितनी भिन्न थी।

                        ••
  * घड़ा रखने की ऊंँची जगह।
                 गंगेश गुंजन.                                     #उचितवक्ताडेस्क। 

Saturday, February 25, 2023

फ़ितरत पर है आज मुझे : ग़ज़लनुमा

 •
     फ़ितरत  पर है आज मुझे
      ग़ुर्बत  पर   है  नाज़  मुझे
                     •
      माँ मैना कहती है मुझको
     और सियासत बाज़ मुझे।
                     •
     हो ही जाता है सब ख़त्म 
     तब भी प्रिय आग़ाज़ मुझे।
                     •
     जो है मुझ में खरा भरा
     ये ख़ुद्दार अंदाज़ मुझे।
                     •
     खाँटी है जो सोच समझ
     इस क़ुदरत पर नाज़ मुझे।
                     •
     है कोई ज़ालिम अब भी
     जब-तब दे आवाज़ मुझे।
                     •
     कब से ही चुप रखा,पड़ा 
     छेड़ूँ दे तो साज़ मुझे।
                      •
     सौंप गया है जो मरुथल 
     उस पर इतना नाज़ मुझे।  
                     ••
               गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।
           रचना -२२.०२.'२३.

Sunday, February 19, 2023

बहस किस बात पर है सो भी अब तक तय नहीं है : ग़ज़ल नुमा

                      | 📕 |
बहस किस बात पर हो सो भी अब तक तय नहीं है
वही बेजान मुद्दोंका ज़ख़ीरा है,सब वहीं है।
                       •
नया दु:ख है न एहसासातमें कुछ ताज़गी है
है तो उनके हितों के गह्वरों में ही कहीं है।
                       •
घिसे लहजे पस्त तेवर में हकलाते हुए बोल
ज़ुबाँ से बास आये ज़रा भी तो रस नहीं है।
                      •
सजे हैं हाथ उनके बहुत दामी बुकेओं से
ग़ौर से देखिए महसूसिये ख़ुशबू नहीं है।
                      •
चीख़कर भी बग़ावत उठ्ठे तो आये न यक़ीन
गुमां पुतले का हो इन्सान का लगता नहीं है 
                      •
झूठ मक्कारियाँ देखे हैं हमने इस क़दर कि
कोई मंदिरमें भी बोलेतो सच लगता नहीं है
                       •
सिले लब पर न क्यूँ हैरत हो ऐसे वक़्तों में
हुआ क्या अब तो गुंजन भी वो लगता नहीं है।   
                    | 📕 |

                       ••                 
                गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।

Wednesday, February 15, 2023

ग़ज़लनुमा : अक्सर उसी की बात से नाराज़गी हुई

.                     🍂                     .
अक्सर उसी की बात से नाराज़गी हुई
पलभर गुज़ारना था जिसके बिना मुहाल।
                      •
कम्बख़्त ज़िन्दगी का क्या कोई भरोसा
किस जगह साथ छोड़ दे रस्ते में बदहाल।
                     •
हर बार बदलने के दिन पास लगे हैं
हर बार,अबर भी है वहीं खड़ा बहरहाल।
                    •
छूटी न सियासत से बेदाग़ कोई शै
हैरत क्या जो अबर इश्क़ ने करा कमाल।
                    •
अब आके समझ का मिरा आया जो ज़रा वक़्त
अब ज़िन्दगी से इश्क़ का घेरे नया जंजाल
                     •
कुछ चाहना,पा लेना कोई पाप तो नहीं
कोहराम क्यों मचा हम पर हो गया बवाल।
                     •
उसको पसन्द रंगत उसको लगे है रूप
अब रूह कौन पूछे बेकार का सवाल।
                     •
चाहें तो घूम आएँ अहले जहान लोग
गुंजन को वतन तक न लौटने का मलाल।
                     •
               गंगेश गुंजन                                       #उचितवक्ताडेस्क। 

Friday, February 10, 2023

लिखता हूँतो ज़रूर है कि लोग पढ़ेंगे : ग़ज़ल नुमा

°                                                  °
 लिखता हूँ तो ज़रूर है ये लोग पढ़ेंगे
 मुमकिन है रुके काफ़िले भी कूच करेंगे।
                       
एक क़ौल क़सम ही है मिरी शाइरी ये भी
हम भी निकल पड़े हैं एक साथ बढ़ेंगे।
                       °
पिछली बहार भी तो गुज़री बहुत उदास 
अबके ज़रा है आस कहीं फिर से मिलेंगे।
                       °
 कैसी ये सियासत है और लोगसियासी
अब किस वसन्त में जा कर फूल खिलेंगे।
                      °
फ़िलहाल तो ये ज़िद है गर हो गई जुनून 
जिसभी किसीदिन हक़के लिए मरभी मिटेंगे
                       °                  
  कल ही की तो बात है गुंजन ने पूछा 
  ग़ाफ़िल रहोगे कबतक हम यूंँ ही मरेंगे।
                         •
                  गंगेश गुंजन                                       #उचितवक्ताडेस्क


Tuesday, February 7, 2023

लोकमाता है -लोकतंत्र !

🌳  लोकमाता है लोकतंत्र : राजमाता नहीं।
                            *
   लोकतंत्र राजमाता नहीं है,लोकमाता है। एक साथ कई-कई बच्चों की विविध रुचि भोजन बनाने और खिलाने का मातृ दायित्व निर्वाह क्या समस्या है इसे अभावग्रस्त मांँ ही जानती है वैभव समृद्ध कोई राजमाता नहीं।
   अपने बाल-बच्चों के लिए जलावन से लेकर पानी और बर्तन तक सबकुछ,मांँ को अपने बूते करना पड़ता है। कोई सहायक नहीं।
   राजमाता के समान उसके पास संसाधन-सेवकों की क़तार नहीं खड़ी रहती। रसोइये नहीं होते‌।  
     राजमाता के पास ये सब होते हैं।
   मुझे अपने बचपन की याद आती है।हम चार भाई बहनें तो ऐसे थे जो दो से चार साल अंतर केआस-पास की ही उम्र के थे। और अभाव के जबरदस्त दिन। बाढ़ सुखाड़ वाले उन दिनों में मांँ जब रोटी बनाने लगतीं तो सभी को पहले चाहिए होती थी। मांँ करें तो क्या? 'आग-पानी तो हमसे नहीं डरते।' कह-कह कर थक जातीं।
ऐसे ही हालात में मांँ को यह हिसाब था कि हममें से कौन धीरज रख सकता है और कौन इंतजार नहीं कर सकता। तब हर बार वो बच्चों के स्वभाव हिसाब से युक्ति निकाला करतीं।
   कैसे-कैसे आश्वासन गढ़तीं।हमें खिलातीं और किसी तरह यह सब संभालतीं। अपना निर्वाह किया करतीं। तब हम खाते थे।
   परंतु जब वास्तविक भोजन का समय होता तो अक्सर मांँ के सामने एक और विकट चुनौती आ कर खड़ी हो जाती।भोजन में हम चारों की अलग-अलग मांँग होती थी। 'मेरे लिए यह बना दो', 'मुझे यह अच्छा नहीं लगता। मेरे लिए वह बना दो मांँ।' इत्यादि। जबकि मांँ के पास भोजन सामग्री सहित ज़रूरी सभी साधन अत्यंत सीमित होते थे। ह्रदय माता का !
   परेशान हो जाया करतीं। कहांँ से लातीं उतनी सब्जी उतने प्रकार कहां से बनातीं ? ऐसे में सोचा जा सकता है कि मांँ की आत्मा पर क्या गुजरती होगी।
तब तो इसका बोध ही नहीं था।आज है तो महसूस करता हूंँ। जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में हम जी रहे हैं उसकी सीमाएंँ हैं। तटस्थ होकर ईमानदारी से देखें तो इसकी सीमाएंँ भी उसी अभावग्रस्त मांँ की तरह हैं।
    उनकी ही संतानें उनके सामने अपनी इच्छा और रुचि और विन्यास का भोजन चाहती हैं और मांँ विवश है।उनके झगड़े सुलझाने में परेशान हैं।
     मेरे इस रूपक पर कितने ही प्रबुद्ध जन परिस्थिति-बोध के तौर पर मेरा भोलापन या मेरी नासमझी भी मानें तो ज़रा भी विस्मित नहीं होना चाहिए।
किसी भी विशेष या साधारण राजनीतिक पार्टी से इसका कोई लेना-देना नहीं है।
    राजनीतिक विचारधारा से तो और भी दूर-दूर तक नहीं।लेकिन राजनीति,भोजन में नमक बराबर भर नहीं है,ऐसा नहीं। उतनी तो है ही इसमें।
                          *

                    गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।                                  (पुनर्प्रस्तुत पोस्ट)