मनुष्य के आंँसू और मुस्कान अंतर्राष्ट्रीय भाषा हैं। करुणा और आनन्द इसका व्याकरण हैं। इसकी लिपि सृष्टि ने स्वयं गढ़ी।
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गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
मनुष्य के आंँसू और मुस्कान अंतर्राष्ट्रीय भाषा हैं। करुणा और आनन्द इसका व्याकरण हैं। इसकी लिपि सृष्टि ने स्वयं गढ़ी।
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गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
लेखक की दरिद्रता
किसी लेखक की इससे बड़ी दरिद्रता और क्या होगी कि स्थानाभाव के कारण वह अपने घर में निजी पुस्तकालय तक बचा कर नहीं रख पाए। यहांँ तक कि कुछ चुनी हुईं मनपसन्द किताबें।
🛖🌳
#उचितवक्ताडेस्क।
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माक़ूल फेसबुक-काल
दिल की गहराइयों से अपनी मुस्कुराती हुई
फोटो के साथ,पत्नी का 'कोरोना-शोक' प्रगट
करने का यह बहुत माक़ूल समय है। फेसबुक
समाज पर ऐसा प्रत्यक्ष आभास होता है।और
देखिए कि इसमें,
उधर कोरोना लगा हुआ है
इधर लोग लगे हुए हैं।
#उचितवक्ताडेस्क।
इस बार जो छूटा तो दुबारा न मिलेगा।
रिश्ते के इस जहाज़ की कुछ तय नहीं उड़ान।
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
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विचार और सांस्कृतिक विरासत
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कालजयी सामाजिक विचार भी मज़बूत
इमारत की तरह होते हैं। समय के साथ पुराने
भले पड़ते जाते हैं,उचित रखरखाव के अभाव
में वे कमजोर भी हो जा सकते हैं लेकिन
अपनी गहरी नींव पर मज़बूत टिके होने के
कारण हर तरफ़ जटिल-कठिन होते जा रहे
आज के हमारे जीवन में उपयोगी हो सकते
हैं। बिना बर्वाद किए हुए वैसी इमारत,समय
के अनुकूल आवश्यक मरम्मत परिवर्द्धन
करके सुविधा से रहने लायक बनाई ही जा
सकती है। उसे छोड़ देना तो इन्सान की
नादानी है।
अगर बाप-दादा की दी हुई सम्पत्ति का नया
उपयोग सम्भव है तो उनके विचार और
सांँस्कृतिक विरासत का क्यों नहीं ?
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#उचितवक्ताडेस्क।
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मेरे सपने में ज़्यादा टूटे घर निकले।
हम लेकिन क़ायम अपने नक्शे पर निकले।
एक इलाक़ा कौन कहे गाँव के गांँव
रोटी के पीछे अनजान सफ़र पर निकले।
दस्तक पर दस्तक दी तब जाकर उस घर से
झाँके एक बुजुर्ग डरे ना बाहर निकले।
बस्ती भर के फूसों की झोपड़ियों वाले
घर मेरे ईंटों के हरदम कमतर निकले।
इस इकीसवीं सदी में भी ज़्यादा घर से
झुलसी रोटी ही खाते पत्तल पर निकले
बारंबार चुनावों के इस लोकतंत्र में
धरती के रहनुमा तो फिर अम्बर निकले।
आधी रोटी लिए झोपड़ों से वे बच्चे
लेकर बड़े घरों से उम्दा बर्गर निकले।
अंँटे कवायद क्यूँकर ये सब मिरे ज़ेह्न में
इस साँचे से हम जो हरदम बाहर निकले।
गंगेश गुंजन।
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#उचितवक्ताडेस्क।
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सुरक्षा अब
अब हम कुछ हत्यारों के बीच अपने को
सुरक्षित पाते हैं।
ऐसा नहीं है कि यह कोई जाति,संप्रदाय या
धर्म का मामला है।
नहीं। मनुष्य के अस्तित्व और थोड़ा निश्चिंत
होकर जीने के अरमान की-जिजीविषा भर का
है।
हम जन साधारण का यह मन
बीते तमाम दशकों की राजनीतियों,
और सल्तनतों की आमद है। इन्होंने ही
हमारी समाज सांँस्कृतिक लोक-चेतना का
सामूहिक विवेक कुंद करके,
इस बदहाल मुक़ाम तक पहुंँचाया।
ऐसा मानस बना कर छोड़ रखा है।
हम तो सिर्फ सपरिवार चैन से सुरक्षित जीने के
अभिलाषी रहे। लेकिन इत्ती-सी भर आकांक्षा
में भी अपने लोकतंत्र ने हमें ऐसा बनाया है।
यह ज़रूर जाना कि राजनीति कोई भी हो,
विचारधारा कोई भी हो, कोई भी हो संगठन,
सत्ता से बाहर वह कुछ भी नहीं है और
सत्ता में वह सदैव क्रूर,हृदयहीन नृशंस है।
वक़्त बेवक़्त उसने ऐसा समझाया भी है।
हमीं नहीं समझे अभी तक।
यह भी कोई जाति,संप्रदाय,भाषा,क्षेत्र या
धर्म का मामला नहीं बल्कि,
लोकतंत्र में क्रियाशील राजनीतिक
विचार-व्यवहारों की स्नायु में प्रवाहित शोणित
की तासीर का है।
यह विडंबना नया यथार्थ है कि अब हम
अपने को
हत्यारों की छत्रछाया,उनकी ही शरण में
सपरिवार और गांँव भर को सुरक्षित और
शांतिपूर्ण महसूस कर सकते हैं।
यह कोई बौद्धिक वैचारिक समझौता भी
नहीं है।
गत इतने दशकों का राजनीतिक हासिल है।
जन-जन का हमारा यह समाज अब
शोषक और शोषित,अमीर और ग़रीब इन दो
पुराने प्रतिपादनों में नहीं, बल्कि
ताज़ा बिल्कुल नये उभर कर आये
दो वर्ग,दो जातियों में जीने के लिए अभिशप्त
हैं
सुरक्षित वर्ग और असुरक्षित वर्ग।
मेरा घर-
दूसरे वर्ग बस्ती में है।
*
गंगेश गुंजन
०३.११.'२०.
#उचितवक्ताडेस्क।
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बहुत जो लोग महरूमे वफ़ा हैं...
*|*
मुहब्बत भर मुहब्बत कीजिएगा।
ज़रूरत भर मुरव्वत कीजिएगा।
कोई जिनिस नहीं कि जमा कर लें
थोक में कर न आफ़त कीजिएगा।
बहुत से लोग महरूमे वफ़ा हैं
जाइए तो वसीयत कीजिएगा।
बहुत कुछ है अभी दरकारे दुनिया
एक ये भी शरीअत* कीजिएगा।
इश्क़ कंजूस भी कोई नहीं है
तबीयत से मुहब्बत कीजिएगा।
किसी को दें अगर कुछ भी कभी जो
तवक़्को फिर कभी मत कीजिएगा।
यहाँ मायूस क्यों हैं लोग इतने
जानिए जो मुहब्बत कीजिएगा।
🌿। || ।🌿
गंगेश गुंजन,
#उचितवक्ताडेस्क।
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पाषाणी सेल्फ़ी
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अपने ज़िन्दा होने का अनुराग-अहसास
करने के लिए सेल्फी लेते हुए कुछ लोग
कितनों को तड़पने-मरने के लिए
फेसबुक पर छोड़ जाते हैं,काश उन्हें
इसकी भी थोड़ी ख़बर होती।
कोरोना काल में कला।
😀! 😂
#उचितवक्ताडेस्क।
|🌑|। 🌖|। 🌘|। |🌔|
ग़ज़ल
ऐसे समय इश्क़ फ़रमाना हद करते हो
बेपनाह मातम मे गाना हद करते हो।
मची तबाही की इस हालत पर बाज़ार
और चाहते दुकां बढ़ाना हद करते हो।
सीधा सादा सफ़र हुआ ही तो जाता था
ऐसे ख़्वाबों में भटकाना हद करते हो।
रौशन भी है घर लेकिन कुछ पढ़ा न जाए
ऐसी आँखों में सपनाना हद करते हो।
चार क़दम की दूरी कहते हो लो मानी।
कहते हो सब नाम भुलाना हद करते हो।
पिछली ऋतुओं से ही कोई रुत ना देखी
अब के भी पतझर ले आना हद करते हो।
हम धरती हो झुलस रहे हैं कब से औ तुम
चाँद अर्श से यों मुस्काना हद करते हो।
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#उचितवक्ताडेस्क।