Sunday, April 30, 2023

ग़ज़ल नुमा : मई दिवस

कोई जो बतलाता हमको कबतक और चलना होगा

पाँव पाँव,जंगल-पर्वत,दरिया-सागर करना होगा।

कितने मासूमों की बस्ती कितने पिंजर बन्द परिन्दे

ख़ौफ़ ओ ख़तर में क़ैद आदमी औ जल्लाद ज़माना होगा।

किस बेरहमी से आएगा पेश और बरतेगा कैसे

नाम मेरा लेगा ममता (ख़ुलूस) से या बिल्कुल बेगाना होगा 

होता है ऐसा भी सफ़र काश हुआ होता इल्हाम

तपती रेतों पर नंगे पाँवों इतना चलना होगा।ऐसे वक़्तों का भी हमको इल्म रहा होता तो कैसे

होंगी सब बीमार दोस्तियाँ सेहतमंद करना होगा।

कहने को तो कहते ही रहते हैं सभी सियासतदान

लेकिन क्या बदला है ढाँचा-ढर्रा,सभी बदलना होगा।

मुझको तो रहना न आया रखता अपने घर में कौन

आख़िर तो चलना था आगे,अभी और चलना होगा।

निकलेंगे तो एक बार फिर अपने नेपथ्यों से लोग

हम भी निकलेंगें देखेंगे जो भी हो,जो होना होगा।

                  गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

आग लगी तो लोग

🏡


              आग लगी तो लोग !

                       🌾! 🌾

     घर में आग लगी तो,व्यवसायी 

     अपनी पूंँजी-हीरे जवाहरात समेटकर 

     बचाने में लगा।

     बंधक-व्योपारी संदूक में धरे अंगूठाछाप और

     दस्तखतों के दस्तावेज़।

     चित्रकार बनी-अधबनी अपनी पेंटिंग,

     लेखक लिखे हुए अपने काग़ज़ात-कलम,

     गाने के साज़ संभाल में पागल होकर जुटा

     गायक कलाकार।

     दरवाज़ा खोलने के लिए पिता दौड़ा 

     बिस्तर में बेख़ौफ़ निश्चिंत सो रहे 

     शिशु की तरफ़ जी-जान से लपकी

          -स्त्री ! 

                               **                                                  गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Thursday, April 27, 2023

निरीह है दु:ख !

                   निरीह है दु:ख !

मामूली से मामूली सुख बड़े से बड़े दु:ख को पकने ही नहीं देता उसको सयाना होने ही नहीं देता है। दु:ख को अपना दास बना कर रखता है। तिस पर भी हम हैं कि बेचारे दु:ख को ही कोसते रहते हैं। 

                     गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, April 18, 2023

ग़ज़लनुमा : उसको गर पर्वाह नहीं है तू भी...

🍂 .                                  🍂 .        


  उसको गर पर्वाह नहीं है तू भी

 कुछ पर्वाह न कर

  जाने दे रिश्ता सब ऐसा भूले से

 भी निबाह न कर।


  दौलत-दौलत खेल चला है जीवन

 के बाज़ारों में

  शामिल होगा और जीतेगा तू

 फ़िज़ूल की चाह न कर।


  करने दे करने वालों को क़त्लों पर

 भी जयकारे

 इन्सानी निस्बत से ऐ दिल मत हो

 शामिल वाह न कर।


  छुपा-सजा कर ख़ाब बचा रक्खे हैं

 काले सायों से

  थोड़ी सी हिम्मत कर और, बचा के

  रख,तबाह न कर।


  क्यों लगता हूँ कभी-कभी मैं भी

 झूठे अख़बारों में 

  अबभी सूखे पेड़ नहीं हैं,हमको तो 

 अफ़वाह न कर।


  गाना रोना एक बराबर लगता है

 इस मंज़र में 

  हो पड़ोस पर शुबहा,लेकिन सब

 पर शक्की निगाह न कर।

                         .

                  गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।


Friday, April 14, 2023

इस कुतरे जाते हुए समय में

      इस कुतरे जाते हुए समय में !

नहीं चाहिए वह सब कुछ जो छूट गया ।

या चला गया। प्यारा भी था,

काम का भी था,और सुविधाओं का भी ,

नहीं दरकार अब।

    अब नहीं चाहिए वो सब ।

आ भी जायँ तो हमारे नए घर में कहाँ रहेंगे ? जगह कहांँ है यहाँ ? यहाँ तो

चमकदार ब्रांँड नामों के साथ ऐसी-ऐसी अनाप-शनाप की भी नयी चीजें  

बड़े जतन से बहुत सजा कर रखी हुई हैं

 अब बीच में उन्हें कहांँ पर कैसे रखा जा सकता है ?

नहीं चाहिए जो छूट गया,खो गया या कहीं रास्ते में रह गया।

इतनी कम जगह में अब कहांँ रखेंगे उसी अनुराग के साथ ?

   अब तो जो भी जगह है जितनी,

किसी असंतोष,किसी बनावटी विद्रोह, किसी नकली भाषा,किसी टूटे-फूटे सपने  कोई छद्म मुस्कान लिए घेरे हुई है ।

कुछ टूटे हुए साथ हैं,

धर्म और संस्कृति,भाषा और इतिहास- भूगोल पर कुछ बिखरी हुई अधलिखी किताबें हैं

बीच-बीच में दुश्चिंताओं के चूहे निश्चिंत होकर रेंगते हुए । 

ऐसा नहीं कि घर नहीं है,

बक़ायदा घर है।घर में घर का,सब कुछ है

वैसा ही रसोई घर भी है,

अनाज,नमक तेल मसाले भी हैं

हरी सब्जियांँ भी लेकिन सब की सब जैसे किसी न किसी बेमन के लगाव से सजी रखी हुई हैं पैकेटों और प्लास्टिक डिब्बों में

    अब इस बीच में मैं कहा रखूंँगा जो कहीं रह गए,पीछे छूट गए या ख़ुद नहीं आए मेरे साथ।

अभी तो सामने जो समय है और जिसमें  कोई भविष्य पनप रहा हो शायद ।

ज़्यादा कुछ तो अशांति में दबे हैं -

परिवेश,पर्यावरण पर अनिश्चय और संदेह का साम्राज्य है।बुद्धि-विचारों पर अविश्वास और अनास्था की सल्तनत है। 

    टमटम में जुते घोड़े वाली आंँखों पर पट्टी है बंँधी हुई,आगे बहुत दूर चलना है 

ज़्यादा चलने वाले को कहांँ जाना है पता भी नहीं। तो 

जो छूट गया, रह गया या जो खुद नहीं आया उन्हें अब इसमें लाकर कहाँ रखूँ। यहाँ रखना कितना मुश्किल हो गया है ख़ास कर तरीक़े से रखना !

उस प्यार और मोहब्बत से,सलीक़े से 

इन्हें सँवार कर रखना तो और भी मुश्किल  है बल्कि नामुमकिन !


और वो जुमला- मुमकिन !

किसी के कह देने से सब मुमकिन है,

सब,

     मुमकिन नहीं हो जाता।                                             🍂🍂

               गंगेश गुंजन                                       #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, April 4, 2023

ग़ज़ल नुमा : कहाँ अब ठौर कोई रहा जाना !

                     🌼.
     कहांँ अब ठौर कोई रहा जाना
     किसे फ़ुर्सत कि रहता जाना आना।

     सियासत जानती है ठीक से ये
     किसे कब और है कितना मिटाना।
    
     उसे दुःख दर्द के लोगों से मतलब
     जिसे आता है सब अपना गँवाना।

     तिज़ारत में अलग हो ख़ास लेकिन
     अपन रिश्ता तो है पूरा निभाना।

     बहुत दु:ख में हों और अकेले तो
     वायदा था  इक दूजे का बुलाना।

     बड़ी थी सर्द उस शब हम टिके थे
     बक़ाया क़र्ज़ है उसका चुकाना।

      गंगेश गुंजन