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हर एक सिम्त काट रही हैं कुल्हाड़ियां।शजर बेख़ौफ़ किसी शाख में पनपता है। 🌱🌱🌱🌱🌱🌱 गंगेश गुंजन। (उचितवक्ता डेस्क)
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हर एक सिम्त काट रही हैं कुल्हाड़ियां।शजर बेख़ौफ़ किसी शाख में पनपता है। 🌱🌱🌱🌱🌱🌱 गंगेश गुंजन। (उचितवक्ता डेस्क)
एक उम्मीद है कि छोड़ती नहीं दामन। मिरा वजूद सुकून के लिए तड़पता है।
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गंगेश गुंजन (उचितवक्ता डेस्क)
'अछाहे कुकूर भूकै छैक।सूति रहू।' बच्चा कें डरा क' शान्त करबाक उपाय ई कहबी, अभिभावक मुहें नेने- भुटका सं सुनैत आयल छी।
उच्च सजगताक आवेश मे भरि देश लगैए जेना आशंकाक 'अछाहे कुकूर भूकब' वला परिस्थिति पसरि गेल हो।
देश-चिन्ता तं सर्वोपरि। मुदा आन देशी मन-बुद्धिये नहिं।एक सीमा धरि,अपन देसी आवश्यकता ओ लक्ष्यक अनुभव मे।देश-चिन्ताक विवेक सेहो स्वदेशी चाही।आयातित बौद्धिकता सं तं जतेक दुर्दशा देश के परतंत्र भारतमे अंग्रेजहु सरकारक प्रभाव मे नहिं पहुंचल छल ओइ सं कय गुना बेसी स्वतंत्र भारत मे भेल हयत। एहि यथार्थ दिस लोकक ध्यान अवश्य जयबाक चाही।🌀
गंगेश गुंजन।(उचितवक्ता डेस्क)
बांस की विनम्रता देखिये कि जैसे ही उसे लगने लगता है कि वह बहुत ऊंचा और लंबा हो गया है तो वह अपनी छीप(फुनगी) पर ऊपर से ज़मीन की तरफ झुक जाता है। मगर बड़े पेड़ों का गु़रूर देखिये जो झुकना नही जानते। अपनी ऊंचाई में धरती पर फैलते ही चले जाते हैं।
उचितवक्ता डेस्क
किसी रौशनदान से हिमालय देख पाना सहज संभव है। हिमालय से कोई रौशनदान देखना सहज संभव शायद ही।
गंगेश गुंजन। (उचितवक्ता डेस्क).
मनुष्य और फुटबॉल
लुढ़क कर मनुष्य जितनी ऊंचाई से भूमि पर गिरता है वह उतना ही चकनाचूर होकर बिखरता है। फुटबॉल उतनी ही ऊंचाई से लुढ़क कर भूमि पर गिरता है तो उसका कुछ नहीं बिगड़ता है। लुढ़कना फुटबॉल का स्वभाव है आदमी का नहीं।🌳🌳
गंगेश गुंजन। (उचितवक्ता डेस्क)
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बाज़ार में आया नहीं है कोई नया ब्राण्ड। नया एक दिल है मेरा जो मैं बेचूंगा नहीं। गंगेश गुंजन।