विशेषण के प्रयोग का आलोचकीय इल्म ही स्वस्थ आलोचना का यथार्थ लक्षण और चरित्र होता है।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
विशेषण के प्रयोग का आलोचकीय इल्म ही स्वस्थ आलोचना का यथार्थ लक्षण और चरित्र होता है।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
सामर्थ्य,चेतना और विवेक साथ में रख कर भी आदमी, दासता का सफ़र करता रहता है।मनुष्य का पराभव हाथी से कितना मिलता-जुलता है।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
हाथी अपनी स्वतंत्रताका शत्रु-अंकुश, अपने ही कान पर लटकाये चलता है, विडंबना देखिए।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
अभिधा में की जा रही कोई प्रशंसा ख़ुशामद या चापलूसी लगती है।वही व्यंजनामें प्रशंसा लगती है। !🙂!
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
'पांव-पैदल चल कर पाती हुई सफलता चमकदार और अधिक टिकाऊ होती है।' पिता कहते थे।
गंगेश गुंजन
[ उचितवक्ता डेस्क ]
आख़िर,देश के फ़क़त तीन राजनीतिक दलों के वर्चस्व की युद्धभूमि तो नहीं बन गया है जन साधारण ? नोट : हमारी यह टिप्पणी राजनीतिक नहीं है।
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गंगेश गुंजन,
[उचितवक्ता डेस्क]
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जिसे हम प्यार करते हैं यह नहीं देखते। हाथ में फूल दिल कटार है नहीं देखते।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
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पृथ्वी क्या ऐसी मानिनी है कि जबतक सूर्य स्पर्श करके उसे नहीं जगाता तबतक सोती ही रहती है !
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
खुले-बंधे हुए सामान हैं सब इस ज़मीन पर। ज़िंदगी के घर में ठहरे हुए मेहमां की तरह।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
आंखों का जो ख़ंज़र झेल गया है। बंदूकें भी सब बेकार उसके आगे।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
रोज आकर सुबह में इसकी उतारे आरती। गगन का सूरज है रहे, ये है मेरी धरती । गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
ग़ज़लनुमा
एकेक कर सामान गया। आख़िर में अरमान गया।
बे ईमान नफ़ासत मे। ज़्यादातर ईमान गया।
सारी उम्र वफ़ादारी । तिसपर भी एहसान गया।
रोगी राजनीति पर यह मुल्क कहाँ क़ुर्बान गया।
कुतरे पन्ने फटी किताब पानी में उन्वान गया।
कुछ भी होता दिखे नया आशा में नादान गया।
८/५/२०१४ गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
रोने लगो तो उसी में रम जाएगा दिल भी।लेकिन खु़शी भी आएगी आंसू में नहायी।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
प्रेम मनुष्य की जीवनी का उत्कृष्ट उपसंहार है और करुणा उसके जीवन को अनमोल उपहार।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
।। ग़ज़लनुमा ।।
चले चलो कोई अच्छा-सा ठिकाना ढूँढ़ें इक ऎसी ज़िन्दगी का जीना आना ढूँढ़ें।
वो तो कब के हुए रफ्त़ारे ज़माना शामिल एक तरकीब कोई हम भी सयाना ढूँढ़ें।
वो समझ बूझके ही निकला था अपनी राह भला बताओ उसे क्यूँ कहाँ-कहाँ ढूँढ़ें।
बहुत उदास है बस्ती मेरे पड़ोस में भी कोई तजबीज करें उसको हँसाना ढूँढें।
रूठ के आ भी गए गर जुनूँ कि गु़स्से में एक बार फिर से उस गली मे जाना ढूँढ़ें।
अब भी टूटा नहीं सब फिर से बन जाएगा नई ईजाद कोई नया बनाना ढूँढ़ें।
थका है जिस्म यह जीवन ऐसा चल-चल कर ज़ुबाँ थकी नहीँ अब भी नया गाना ढूँढ़ें।
मुझसे नाराज़गी इतनी उसकी वाजिब हैै चलो मनायें कि प्यारा-सा बहाना ढूँढ़ें।
झुलस रहे हैं जहां पा लें की हसरत में इक ज़रा और की निस्बत में गँवाना ढूँढ़ें।
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- गंगेश गुंजन, 28 दिस.2012 ई.[उचितवक्ता डेस्क]