Monday, December 24, 2018

सब्सिडी सिर्फ वित्तीय अनुदान ही नहीं !

सब्सिडी सिर्फ वित्तीय अनुदान ही नहीं !
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सब्सिडी का स्वरूप आज की तारीख में सिर्फ वित्तीय और सरकारीअनुदान ही नहीं है। मुझे लगता है सब्सिडी कई रूपों में समाज के संपन्न लोग भी प्राप्त करते हैं।और उसे अपनी संपन्नता बढ़ाते हैं किंतु अंततः सरकारी जो संगठन है जो संकाय और विभाग हैं उन पर किसी न किसी रूप में पड़ता  उसका बुरा प्रभाव पड़ता रहता है।

जहां तक कम्प्यूटर और नागरिक निजता का प्रश्न है उस संदर्भ में जो सच वे कह रहे हैं और कहे जा रहे हैं उनका औचित्य देश की स्वतंत्रता देश के संग सुरक्षा और जनताके कल्याण से बड़ा नहीं है। हम जैसे नागरिकों के मन में यह भी एक प्रश्न उठता है कि जनसाधारण कम्प्यूटर धारी जनसाधारण भी उसे इस निजता स्वतंत्रता के सवाल पर सशंकित होने और डरने की क्या जरूरत है ? डरने की क्या जरूरत है ?और जो अन्य तबका है समाज का बुद्दिजीवी वर्ग तवक़ा उसमें,समृद्धि की और बढ़ने वाले लोगों का तवक़ा उनकी गतिविधियां राष्ट्र विरोधी ना भी हो सकती हैं तो भी कुछ अनियमितताओं से भरी हुई रह सकती हैं। इसीलिए उन्हें सशंकित होना पड़ रहा है।जनसाधारण किसी भी दुराचरण में क्यों पड़ेगा ? उसे तो अपना छोटा सा घर-परिवार, दिन और रात सुचारू चलाने की चिंता रहती है ।और सामान्यत: नियम के दायरे में रहकर जीवन यापन करने का स्वभाव होता है ,जबकि बड़े-बड़े एन.जी.ओ. वाले,बड़े अखबार, बड़ी संस्थाएं, बड़े ट्रस्ट बगैरह इन सबों में बहुत प्रतिशत अवश्य ही ऐसे होंगे जो राष्ट्र विरोधी नहीं होकर भी देश की विधि व्यवस्था विरोधी गतिविधियों में संलग्न हो सकते हैं और अपने को समृद्ध कर रहे होंगे। तो यह निगरानी भी क्योंकि उनके सरकारी विज्ञप्ति के दायरे में आ जा सकती है इसलिए उनका चिंतित और चौकन्ना होना स्वाभाविक है।

परंतु एक बार फिर बड़ी चतुराई से उच्च मध्यवर्गीय और उच्च वित्तीय लोग जो अपने स्वार्थ और उसी के अनुसार समझ के दायरे में जनसाधारण के कंधे पर बंदूक रखकर चलाना चाहते हैं। इसका क्या औचित्य है ? मुझे नहीं लगता कि सरकार की इस नई विज्ञप्ति में,जिसे तमाम नागरिकों की निजता पर हमला बताया कर प्रचारित और हल्ला बोल दिया गया है वह उचित या सही है। भारतीय समाज की आज भी यही वास्तविकता है । अधिकांश प्रतिशत लोगों की जिन्हें हम सचमुच जनसाधारण कहते हैं सामान्य जनता कहते हैं उनकी चिंताओं में बहुत पारंपरिक और पवित्र रूप से देश की चिंता है और वे अपने अपने स्तर से नियमानुसार सीधा साधा और सच्चा जीवन यापन करते रहते हैं। वे हमारे नियम मुताबिक संविधान के अनुसार और दायरे में ही अपना स्वार्थ तय करते हैं और उसे सिद्ध करने की मशक़्कत में लगे रहते हैं ।इसीलिए यह धारणा फालतू है कि इस सूचना के तहत सारे कम्प्यूटर धारी लोग भारत में निजता खो देंगे । ऐसा नहीं है । क्योंकि अभी भी बड़ी-बड़ी संस्थाएं अधिकांश बहुत नियमानुसार और राष्ट्रीय स्वास्थ्य को अपने एजेंडा में रखकर नहीं चल रहे हैं यह तो सर्वविदित है। राष्ट्रीय सुरक्षा सिर्फ सीमा सुरक्षाबल से नहीं देशप्रेमी नागरिकों पर भी टिकी होती है। संस्थागत संहिता एवं वित्तीय अनियमितता से भी देश दुर्बल होता है। संविधान कमज़ोर होता जाता है।

यह प्रश्न जनसाधारण की निजता के दायरे का बिल्कुल नहीं है। अपितु यह समाज के कुछ प्रतिशत समृद्धि लोग, परिवार और कुनबे के संदिग्ध विमति समूह का प्रायोजित हल्ला बोल है जो सरकार की सुविधा और मिलने वाले संरक्षण के रूप में सब्सिडी लाभ उठाने के आदी हो चुके हैं। संविधान प्रदत्त निजता के अधिकार की आड़ में सब्सिडी अपना विशेषाधिकार मानते हैं और स्वतंत्र भारत में गत कितने ही दर्शकों से निर्विरोध और सुविधा पूर्वक प्राप्त कर रहे हैं ।

अतः मुझे तो लगता है कि यह विज्ञप्ति उनके सब्सिडी छीनने की घोषणा है और वह सहन कर हर बार की तरह हर मुद्दे की तरह इसे भी जनसाधारण से जोड़कर उनका स्वार्थ बता कर अपना युद्ध जीतना चाहते हैं जो प्रकार अंतर से राष्ट्र की प्रगति के अनुकूल नहीं है देश की सुरक्षा के भी अनुकूल नहीं है।        **
-गंगेश गुंजन. 22 दिसंबर, 2018.

Friday, December 14, 2018

हम इतने करुणाहीन क्यों हो रहे हैं

हम करुणाहीन क्यों होते जाते हैं।
                  🌻
करुणा मनुष्यता का दिव्य गुण है। स्वयं को असमर्थ और दयनीय होने से बचा कर,इस अनमोल मानवीय धन-करुणा का अपने लिए ख़र्च होने से बचा कर हम समाज का मूल्यवान सहयोग कर सकते हैं।पड़ोस और समाज को दयनीय पर ही दया आती है। स्वस्थ और सक्रिय मनुष्य पर समाज की सदा संतोष और सराहना की दृष्टि पड़ती है। अपने-अपने यत्न और रखरखाव से हम स्वस्थ रहें तो समाज की करुणा बचेगी।
    वृद्ध जन वृद्ध तो दिखें लेकिन असहाय और बीमार नहीं।ऐसी चिन्ता रखने से सामाजिक करुणा का अपव्यय बच सकता है।
मुझे लगता है अन्य भंडारों की तरह ही मनुष्य में करुणा का भंडार भी सीमित है अतः करुणा का भी प्रयोग और ख़र्च भी बहुत विवेक के साथ ही होना चाहिए अन्यथा यह पृथ्वी धीरे-धीरे अपने इस दिव्य मानवीय गुण करुणा से रिक्त हो जाएगी और मनुष्यता निष्करुण।
                 🌳🌳
-गंगेश गुंजन। १५.१२.’१८.

Saturday, December 8, 2018

सही मन से लिखा

सही मन से लिखा !

सही मनसे लिखी गई या की गई टिप्पणी आपके मन के विरुद्ध भी है तो आप को प्रभावित करती है। यह आज भी सच है कि आप उस से अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकते।
कहना यह चाहता हूं Facebook पर कई ऐसी टिप्पणी आती है जो उस लेखक की ईमानदारी और सदाशयता की,विवेक से भरी हुई टिप्पणियां लगती हैं। कई बार विचार आता है जो आपके अनुकूल नहीं होने पर भी प्रभावित करता है और यह विशेष बात लगती है।
   युवतर पीढ़ी में यह गुण मुझे कुछ अधिक देखार लगता है। इसका स्वागत होना चाहिए।स्वागत हो भी रहा है। कभी लिखा था कि भाषा चुग़लख़ोर होती है। चुग़ली करती है। बेईमान लेखन इसका जल्द और ज्यादा शिकार होते हैं।भाषा भी आईना है !
-गंगेश गुंजन।

Thursday, December 6, 2018

कुछ ज़रूरी टिप्पणियां !

सत्ता से बाहर सत्ताभोगी और सत्ताधारी रानीतिक दल !
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सत्ताभोगी किसी रानीतिक दल का कार्यकर्ता या नेता अगर दूसरे सत्ताधारी दल के नेता की‌ खिंचाई करता है तो यह उसकी ‘थेथरै’  ही कही जाएगी। बिल्कुल थेथरै। कारण यह कि अभी तक देश की जनता को ऐसे किसी एक भी राजनीतिक दल के शासन सत्ता में रहकर ऐसा कुछ  अनुभव नहीं हुआ है कि भ्रष्टाचार उसके गुप्त एजेंडे में‌ नहीं रहा हो। सो यह ऐसे लोकतंत्र का यह चुनावी कर्मकाण्ड भी मिलाजुला कर सत्ता का हस्तांतरण भर होकर रहता है।ठीक वैसे ही 1000 मीटर के रिले रेस के जैसा।
जनसाधारण बेचारा तो 5 वर्ष का पपीहरा है!
००
वर्तमान कितना भी छोटा हो,अतीत से बड़ा होता है लेकिन वर्तमान कितना भी बड़ा हो भविष्य से छोटा होता है।
२.
संस्कृति माफ़िया !
चंदन माफिया,कोयला-बालू-
माफ़िया और  के समान ही देश भर कहीं 'संस्कृति माफिया' का भी उद्भव और विकास तो नहीं हो गया लगता है ? अगर है तो इसका संपोषण निश्चित ही राज्य और केन्द्रीय सरकारों के संस्कृत मंत्रालय और उनसे संबद्ध केंन्द्र और राज्यों की अकादमियां करते हैं। अपवाद छोड़ दें तो इसके उत्स चाहे जो और जहां भी रहें।
३.
नानी विद्या
संस्कृत मेरी नानी विद्या है।(विद्यानानी)! क्योंकि मैंने हिन्दी पढ़ी है और संस्कृत हिन्दी की जननी है, सो संस्कृत मेरी नानी विद्या है।

-गंगेश गुंजन।६.१२.