Thursday, February 14, 2019

मानवता का सुरक्षित आश्रय प्रेम ।


मानवता सबसे अधिक सुरक्षित,प्रेम में ही है।
🌻
-गंगेश गुंजन

Tuesday, February 12, 2019

प्रेम और कविता !

🌱
सोचता हूं कि प्रेम ने कविता को विलक्षण बनाया या कविता ने प्रेम को ?
  प्रेम और कविता पर्यायवाची हैं ?
                      🌻!
                         -गंगेश गुंजन

हम सब के प्यारे बुद्धन भाई ‌!

हम सब के प्यारे बुद्धन भाई ‌!
आकाशवाणी पटना माने चौपाल और
चौपाल माने बुद्धन भाई !
  🍁
मैं भी अक्सर चौपाल में गंगेसर भाई बनता था। बनता क्या,बनना पड़ता था। महोदय जीवछ भाई (अर्थात् कुमार साहेब,अर्थात् श्री साकेतानन्द ) के मनमौजीपन और कभी-कभी उसकी लंबी छुट्टी में रहने के कारण उसकी अनुपस्थित मे। चौपाल मे मुझे गंगेसर भाई का अवतार लेना पड़ता था और
बुद्धन भाई की भोजपुरी और रूपा बहिन की मगही के साथ मैथिली कंपीअरिंग‌ करनी पड़ती थी। रूपा बहन-अर्थात् सुश्री शीला डायसन ! बरसों।
बुद्धन भाई किसी को नहीं बख़्शते थे। भाषा-उच्चारण में ज़रा सी चूक हुई नहीं कि - ह’ नू मुखिया जी ! सान्त ?’ शान्त रहो गंगेसर भाई कहने में मुखिया जी सान्त बोल गये सो लाइव माइक पर बुद्धन भाई का जिज्ञासा-ज्वार उफनने लग गया - 'सान्त! ह नू मुखिया जी !’ ऐसी खिंचाई। मेरी ग्रह दशा कुछ अच्छी रही। मैं भैया कहता भी था। बुद्धन भाई मेरा मजाक नहीं उड़ाते । बाकी उच्चारण त्रुटि पर तो किसी को भी नहीं छोड़ते थे। ख़ुद भला आदमी पाणिणी का अवतार हो गया-लगता था। नये मुखिया जी की तो मुश्किल कर‌ डालते। खासकर उनके मैथिली मिश्रित बिहारी हिन्दी तलफ़्फ़ुज़ को लेकर।लेकिन हम दोनों भाई में ऐसी एक समझ बन गई थी कि क्या कहें।
  कई दफ़े बुद्धन भाई और हम पहले से विचार कर लेते-’आज मुखिया जी को कुछ दिक करना है। बस उस दिन तो मुखिया जी को बुद्धन भाई को नियंत्रित करते-करते पसीना छुट जाता था। लेकिन क्या माहौल था !
  एक बार चौपाल में मुर्गी पालन पर कंपीअरिंग होनी थी। हम दोनों भाई ने मिलकर‌ मुखिया जी की ऐसी घिग्घी बंधा दी कि ...।
बुद्धन भाई ने मुझे इशारा कर दिया और मैंने अचानक उस मुर्गी पालन चर्चा में मुखिया जी को पूछ दिया- ‘मुखिया जी यौ,अब तं मुर्गीक चूज़ा सब तं अहाँक भरि डेरा फुदकैत हैत ! आनन्द लगैत हयत !’(मुखिया जी,अब तो आप की मुर्गी के चूजे सब घर भर टहलने लगे होंगे! आनन्द आता होगा आपको।)
अब मुखिया जी के आगे सांप छछूंदर की गति बन आई। कहें-ना कहें। क्योंकि सरकारी प्रसारण हो रहा था और वह चौपाल के मुखिया जी हो करके अगर मुर्गी पालन से इनकार करते हैं तो प्रसारण की विश्वसनीयता का श्रोताओं में नकारात्मक संदेश जाता।उस नाटक को निभाना ही था। लेकिन उनके साथ दूसरा संकट अधिक विकट था। अभी उन्होंने कुछ ही दिनों पहले रेडियो चौपाल के मुखिया का कार्यभार संभाला था। शुद्ध कर्मकाण्डी मैथिल ब्राह्मण परिवार के संध्यावंदन वाले व्यक्ति थे। और प्रसंग मुर्गा भर नहीं,मुर्ग़ी पालन पर था सो भी अपने घर में। वे घबरा गए। चौपाल बहुत लोगों के द्वारा सुना जाता था। बहुत विस्तृत श्रोता थे। उसके अलावे उनके भद्र मैथिल गांव और परिवार के लोग जिसमें मुख्यतः इनके पंडित पिताजी भी थे वह भी सुनते ही थे,इस चिंता में उनकी घिग्घी ही बंध गई।मेरे सवाल पर  हां कहें ना कहें ! ना कह नहीं सकते थे क्योंकि मुखिया जी थे। हां कहते तो गांव हफ्ता हफ्ता गांव जाते थे तो वहां ग्रामीण,परिवार और पिताजी से कैसे सामना करेंगे कि महा भ्रष्ट हो गये। पटना जाते-जाते ही घर में मुर्गी भी पोसने लगे। फिर तो अण्डा भी खाते ही होगे ।...
  लेकिन सो ऐसे क़िस्से फिर कभी। हां हम ये सब शरारतें करते। लेकिन कहीं से किसी तरह  मर्यादा से बाहर नहीं। क्या सामंजस्यपूर्ण कार्यक्रम होते थे। और किस प्यार और लगाव के साथ माइक्रोफोन बरतते थे हमलोग !
ज़िक्र भर रह गया है अब तो। आने वाले वर्षों में इतना भी शायद ही बचा रहे। बुधन भाई अद्वितीय थे। अद्वितीय। वैसा दूसरा कलाकार मैंने नहीं देखा। बतौर इन्सान भी वे अपने कलाकार से तनिक भी कम नहीं थे। रहन-सहन उनका चाहे जैसा भी अनगढ़ औढर रहा हो परंतु बड़े से बड़े बहुत बढ़ चढ़ कर उनका आदर करते थे। और किसी ने कहा ‘पीने के चलते !’
-’हां सही है। लेकिन तुम को मालूम है एम आई मल्लिक जैसे अनुशासन प्रिय कठिन स्टेशन डायरेक्टर के समय,जो पी हुई हालत में किसी स्टाफ आर्टिस्ट को माइक्रोफोन पर गाते-बजाते हुए जान लेते तो वह कल सुबह से स्टाफ आर्टिस्ट नहीं रह जाता था। रेडियो से बाहर। इतने कड़ियल। लेकिन मालूम है कि बुद्धन भाई को इस तौर पर भी मलिक साहब ने,एक नहीं शायद तीन-तीन बार माफ किया। यह सोच कर कि बग़ैर बुद्धन भाई के तो चौपाल बेजान हो जायेगा।
बुद्धन भाई के बारे में गुरुजी ( केशव‌ पाण्डे जी)ने दिल तक उतर जाने वाले कई और दिलचस्प संदर्भ बताये थे।
मलिक साहब ने उनके कलाकार की मर्यादा और और चौपाल तथा उसकी अपार लोकप्रियता में उनकी अहमियत को मान देते हुए उन्हें बचाया था। मामूली सावधानी या चेतावनी देकर। उनकी  यह उदारता थी या रेडियो प्रसारण के प्रति गंभीर संवेदनशीलता। लेकिन बुद्धन भाई तो बुद्धन भाई ही थे !‌

बुद्धन भाई आकाशवाणी पटना में ।…. एक बार मैं बाहर पोर्टिको के पास से गुजर रहा था। कुछ-कुछ अंधेरा-सा भी था। वहां एक रिक्शा रुका हुआ था।और देखता क्या हूं कि वह रिक्शावाला भाई रो रहा है और बुद्धन भाई अपनी धोती के छोर से रोते हुए रिक्शा वाले के आंसू पोछ रहे हैं,और उसके संग खुद भी रो रहे हैं।और इधर चौपाल की संकेत धुन पोर्टिको तक गूंजती आ रही है। चौपाल में कंपीयरिंग के लिए ही आए हैं। चौपाल शुरू है और अभी रिक्शा वाले को इस स्नेह वत्सलता से समझा रहे हैं जैसे कोई अपने बिगड़े हुए छोटे भाई को दिलासा देता है। निरंतर अपनी धोती के कोर से उसके आंसू पोंछे जा रहे हैं। बेफिक्र। इसी बीच चिंतित-निराश ड्यूटी आफ़िसर को किसी ने कह दिया कि बुद्धन भाई तो पोर्टिको ‌मे खड़े किसी से बतिया रहे हैं तो सांध्य सभा प्रसाण का वह अभागा डी.ओ. बेचारा हाहाकार करता भागा-भागा उनके पास पहुंच कर बांह पकड़ के खींच रहा है चौपाल एयर पर जा रहा है...क्या कर रहे हैं आप बुद्धन भाई चलिए, दौड़िए!
बुद्धन भाई आराम से उसे झटक देते हैं -’ जाय द’ मर्दे ट्रांशमीशन खातिर हम आपन‌ भाई के रोअत छोड़ देब ?
***
तो क्या था कि दोनों वहीं से आ रहे थे -चिड़ैयाटांड़ पुल के नीचे,बायें पुराने भाई पास रोड में जो वह जगह थी ! कितनों की ज़िंदगी, परिवार तबाह कर डालने वाली मनहूस जगह !   जाहिर है डीओ बेचारे को ट्रांसमिशन रिपोर्ट में लिखना ही पड़ा होगा।बुद्धन भाई को क्या पर्वाह !
    ऐसे थे बुद्धन भाई।

**
प्रिय आनंद और मंटू !
तुमने कहा था न बुद्धन भाई पर कुछ कहने !
‌कई संदर्भ और संस्मरण हैं लेकिन लिखने और बोलने में आजकल ज्यादा धीरज नहीं रहता। इसलिए इतना ही अभी।
🌳🌳
-गंगेश गुंजन।२३.१०.’१७

Monday, February 11, 2019

आत्महत्या करने वाले सभी किसानों का पूरा क़र्ज़ माफ किया जाएगा’

😎
किसी दैनिक अखबार में बड़े अक्षरों में समाचार छपा था:
‘आत्महत्या करने वाले सभी किसानों का पूरा क़र्ज़ माफ किया जाएगा।’
    समाचार सुनकर पास बैठे एक नौजवान ने बड़े मासूम भाव से पूछा-
-किसान के आत्महत्या करने के ऐलान करने पर ही या आत्महत्या करने के बाद पूरा क़र्ज़ा माफ किया जाएगा,चचा ?’
-आधा क़र्ज़ उसके आत्महत्या का ऐलान करने पर और आधा आत्महत्या कर लेने के बाद माफ़ किया जाएगा। सीधा-सा हिसाब है। दो आसान क़िस्तों में। इसमें चचा से पूछने की क्या बात है?’ दूसरे नौजवान ने छूटते ही कहा।
चाचा भी मूंछ भर मुस्कुराये बिना नहीं रह सके। पता नहीं ख़ुद या‌ मौजूदा महाभारत पर ?
                    🌻
            (उचितवक्ता डेस्क)

Thursday, February 7, 2019

कविता

🌱
कोई एक कविता संपूर्ण और समग्र नहीं कहती। पाठक को संपूर्ण और समग्र देखने- महसूसने के संकेत और उस अनुभव के संभव आयामों तक ले जाती है।
                      🌻
                 -गंगेश गुंजन

सुबह

सुबह
🌻
छील रही हैैं उषा की उंगलियां
फल की तरह ब्रह्मांड !
उजाले पर से अंधेरे का छिलका
उतर रहा है।
सुबह हो रही है।
छिला हुआ संतरा-सूरज
उगा !
                     🌻
                       -गंगेश गुंजन.

Tuesday, February 5, 2019

इतिहास सत्ता का ही लिखा जाता है

इतिहास सत्ता का ही लिखा जाता है
*
इतिहास सत्ता का ही लिखा जाता है प्रत्यक्ष सत्ता हो या परोक्ष। सत्ता साहित्य और संस्कृति की भी होती है।
   इतिहास कामी लोग अपने उपलब्ध अवसरों में  दूरदर्शिता के साथ ऐसी संरचना भी करते चलते हैं जो उन्हें किताबों में दर्ज करती रहती है । सत्ता कुछ तो मिलती है प्रतिभा से भी किंतु साधारणतया अन्य सामाजिक कौशल से स्थापित और बढ़ाई ही जाती है और सत्ता प्राप्त प्रतिभाओं के यत्न से उसमें टिकाउपन लाया जाता है और इसके लिए बड़े कौशलसे सामयिक  आधुनिक उपकरण-अवयवों का कलात्मक प्रयोग किया जाता है।
     पहले राजा रजवाड़े हुआ करते थे तो उनके आश्रय में आज इस लोकतंत्र में। मौजूदा लोकतंत्र अधिकतर सत्तासीन राजनीतिक दल और सक्रिय विपक्ष की हिस्सेदार राजनीतिक दल और इनके झंडा बरदारों के स्नेह संरक्षण से इतिहास में जगह पाने लायक सत्ता तैयार होती है ।अर्थात किसी इतिहास-कामी द्वारा
कोई भी सत्ता अक्सर किसी बृहत्तर सत्ता को दिए हुए यानी उसमें निवेश किए गये का ही प्रतिबद्ध,उपकार या संपत्ति होती है। तो संपत्ति के क्षीण होने की प्रक्रिया में ही इतिहास की ऐसी सत्ताएं भी कालांतर में अपनी अपनी आभा खो देती हैं। धूमिल हो जाती हैं और और उद्धृत या पढ़ने योग्य नहीं बच जातीं। मगर विधा रूप में तब भी इतिहास परिवर्तित परिवर्धित और निर्मित होता रहता है।
   अपने समय की जाने कितनी रचनात्मक प्रतिभाओं की इतिहास ने निष्ठुर अवहेलना की, क्योंकि वे प्रतिभाएं किन्हीं कारणों से सत्ता का आश्रय लेने नहीं गईं।अतः वे इतिहास के पृष्ठों में उपस्थित नहीं हो पाईं। फिर भी इसी कारण से वे प्रतिभाएं हुई ही नहीं या बच नहीं पाईं ऐसा सोचना संकुचित,तात्कालिक और अनर्गल मानना है।
    प्रतिभा किसी न किसी रूप में चाहे उसे कोई वृक्ष, हवा,पानी मिले ना मिले वह फिर भी जीवन,अमृत और पराग की तरह परिवेश में विद्यमान रहती है।
*
-गंगेश गुंजन। ४.२.’१९.