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सिलसिले टूटे थे जो फिर से
नये आग़ाज़ में हुए फिर से।
टूट ही तो चली थी अब उम्मीद
एक दस्तक ने बचा दी फिर से।
कोंपलें फूटी हैं फिर कुछ तो
रूह में रुत है, ख़ुशबू फिर से।
सुकूनदेह कितनी आहट है
चलो,आयी तो है वो फिर से।
अभी तो सुर में ही था सबकुछ
अभी कुल हाथ में पत्थर फिर से।
कोई बदले, बदले मत बदले
दिल ने ले ली है करवट फिर से।
कोई मजबूर न होगा, मौसम
सबा आज़ाद चलेगी फिर से।
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।