Monday, May 28, 2018

भूले से विश्वास न कर

भूले से विश्वास न कर
               *
मौसम  वापस लौटेगा
भूले से विश्वास न कर

कोई  वचन निभाएगा
ऐसी कोई आस न कर

जीवन रख आम ही दोस्त
इसको इतना ख़ास न कर

एकान्तों  में घर न   बना
गांँव से दूर  निवास न कर

मरना  ही है  गर तुझको
यूँ  लावारिस लाश न कर    

बहुत पुराना है  सब कुछ
फेंट-फाँट के ताश न कर  

भटके   हुए डरे हैं  लोग
सोच के मन हताश न कर

वोट  पर्व  के वादों  का
भूले से   विश्वास न कर

बकबक करने दे उसको
तू तो यूं बकवास ना कर

आया  नहीं पत्र  उसका
जी अपना उदास ना कर

टूट  न जाने  दे सपना
दिलकी ख़त्म प्यास न कर

एक सफ़र फिर जो बेकार  
हो,मन को वनवास न कर।    
              -गंगेश गुंजन।17 जून 20011

Wednesday, May 23, 2018

लोकतंत्र का शोभा-सुंदर !

लोकतंत्र का शोभा-सुंदर !
*
जिला पुरैनियां से प्रखर युवा पत्रकार चिन्मय आनन्द ने एक दिलचस्प और ज्ञानवर्धक पोस्ट लिखा है कि ट्रंप महोदय का नाम भूल गए। याद करने के लिए आखिर Google से मदद लेनी पड़ी। वैसे Google को भी कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ी। तुरंत उनकी फोटो आ गई। बस। फोटो से पूरा अमेरिका आ गया। अब इस उपलब्धि का उन्होंने किया क्या सो कुछ भी नहीं लिखा है। पत्रकार लोग आजकल यह भी कर देते हैं !
   यही है ज्ञानवर्धक पोस्ट।मेरे एक पचपनोत्तर अनुज बंधु मित्र या कहें मित्रवत अनुज यह पढ़कर इतने उत्साहित हैं के इनके उत्साह से हम लोगों का आकंठ मनोरंजन हो रहा है। ये मित्र खुश हैं कि आहिन्दा जब कभी सास-ससुर का नाम भूलेंगे तो गूगल महान् की मदद ले लेंगे। जिस दांपत्य अनुशासन में बेचारे अबतक अपने विवाह की निर्विघ्न  20-25 वर्षगांठ मना चुके हैं उसे सुचारु रखने के लिए यह आवश्यक है । जबकि दुर्भाग्य से ये दोनों ही नाम उन्हें अक्सर नहीं याद रह पाते। सुन्दर सालियों के नाम में ऐसी कोई समस्या नहीं है। तब ऐसे ससुराल शासित परिवार में इन पति का क्या बनता होगा यह सहज ही कल्पना योग्य है। अब उन्हें कौन समझाए Ok Google बेचारा भी ऐसा कोई मैथिल पंजियार नहीं है कि शव कुलीनों के सभी खतियान कान के नीचे रखता हो। यानी वह स्वनामधन्यों का ही व्यौरा रखता है। वह कुछेक सीमितों बारे में ही आपको बताने का कष्ट करता है,किसी साधारण झा चौधरी या पाठक सिंह का नहीं। अर्थात क्या आपके साथ ससुर भी कम से कम श्रीमान धर्मेंद्र जी और कम से कम मालिनी जी की तरह की हैसियत के हों तभी गूगल जी आपको तवज्जो देंगे। अन्यथा सास और ससुर का नाम भूलने के दुष्परिणाम से आपको अपने स्तर पर ही सलटना होगा ! अब किसी साधारण तुच्छ किसान परिवार के एक बुजुर्ग दंपति का भला Google कितना ख्याल रखें? इतने बड़े लोकतंत्र की इतनी संवेदनशील सरकार की व्यवस्था और महक़मे तो बेचारे किसानों की खबर रखी नहीं पाते और यह बेचारा Google एक छोटे से बक्से में यह मशीन इतने-इतने किसानों के पीछे कहां तक भागती फिरेगी ! फिर भी भला हो पत्रकारों का ही कि वह जगह कथा इन किसानों की आत्महत्या पर शोक श्रद्धांजलि टाइप समाचार छापते रहते हैं। अन्यथा तो साधारण लोगों को अपने जैसे साधारण की आत्महत्याओं के बारे में जान पाना भी मुश्किल ! अतः सहानुभूति चाहिए।
    पत्रकारिता में भी इधर एक नई क़िस्म के नाटक वाले क्लाइमेक्स-तत्त्व आने लगे हैं।घटना या समाचारों का क्लाइमेक्स अब संसद-विधानसभाओं या महज़ ऐसी ही किन्हीं निर्णायक संस्थाओं में ही नहीं होता बल्कि यह पत्रकारिता में भी संभव हो गया है। अभी भले यदाकदा है परंतु इसका भविष्य इसमें बहुत ही सुनहरा उज्ज्वल और सुनिश्चित है !
लीजिए, कहां चला गया मैं भी। फोटो की बात थी...
   इधर कुछ दिनों से देखने में यह आ रहा है कि कोई एक फोटो ही देश बन जा रही है ! देश कोई जनता के दु:ख सुख या समस्या के कारण देश नहीं है,उस देश के एक विशेष व्यक्ति की फोटो के कारण देश बन जाता है। और सो यह भी आवश्यक नहीं कि सिर्फ उस देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति जी के कारण ! नहीं, किसी जिला परिषद के सदस्य के भी कारण हो सकता है। आकाशवाणी पटना के दिनों में मुझे याद है कि 'आर्यावर्त्त' अखबार में जो बेचारा हम लोगों का इकलौता आर्यावर्त महान था,उसमें किन्हीं एक मछली विभाग - जिसका सरकारी नाम-’मत्स्य पालन विभाग’ था,और किसी अवसर विशेष पर अपने संदेश की रिकार्डिंग कराते समय जब उक्त विभाग के अध्यक्ष जी चौथी बार मत्स्य शब्द का उच्चारण मतस्य मतस्य करते रहे तब आखिरकार रेडियो के अभागे प्रोड्यूसर ने  अनधिकृत रूप से जनहित में उसका नाम बदल कर ‘मछली पालन विभाग’ कर दिया और पूर्व सांसद महोदय से मछली पालन विभाग’ बुलवाने में सफलता भी पाई। अब यह फोटो कांड उन्हीं महोदय का है !  महान आर्यावर्त्त में 'मत्स्य पालन के विकास में उनके ऐतिहासिक योगदान का सरकारी समाचार तो उनके नाम के साथ छप गया लेकिन उनकी फोटो नहीं छप पाई ! अब सोचिए,अध्यक्ष की फोटो नहीं छपी जो एक सम्मानित सांसद भी थे।यह तो एक लोकतांत्रिक अपराध ही था,और सो भी अपने इस स्वतंत्र देश का इमर्जेंसी आभासी स्वर्ण काल विकास शील हो रहा था ! सांसद सत्तासीन दल ! बाल-बच्चे, वृद्ध मां-बापदार बेचारे समाचार संपादक की तो नौकरी जाने पर ! अब वह हाय-हाय करने लगा। वह तो कहिए कि पराड़कर महान परम्परा के श्रीकांत ठाकुर विद्यालंकार जी जैसे संपादक थे,जो क़द में अकेले 2-3 मुख्यमंत्रियों के बराबर पड़ते थे सो ग़रीब की नौकरी बची।
   तो चिन्मय ने दुस्साहस किया है। एक तो वो महामना ट्रंप नाम भूले और ऊपर से इस पर लिख भी डाला। ग़नीमत है कि वह एक व्यक्ति हैं, विशेष चाहे जितने भी हों। कहीं जो वह कोई देश हुए होते ! देश क्या कोई एक प्रान्त भी होते तो उन पर हमले की भी तैयारी हो सकती थी !
     बतौर पत्रकार वह अपनी जान हथेली पर लेकर लिखा करें। कोई हर्ज नहीं। हालांकि उनको सावधानी बरतने मैं फिर भी कहूंगा ही। परंतु स्वतंत्र पत्रकार हैं। स्वतंत्रता बरतते हैं। मगर हां देश तो सर्वोपरि है। और जो अपने ऐसे अच्छे दिनों के साथ विश्व गुरु होने के आदर्श प्रयाण पंथ पर अग्रसर हो चुका है और इस महाशक्ति मित्र राष्ट्र का सौजन्य स्नेही है,उस देश का सवतंत्र पत्रकार होकर ट्रंप का पूरा नाम भूलेंगे तो कैसे चलेगा भाई ?  
   देश को जरूर सोचें।देश को जरूर सोचते हैं भी आप। तब हां, इसका क्या करिए कि आज बिना जान हथेली पर लिए देश के लिए कुछ सोचा जा भी कहां सकता है ?
    अब यह तो लोकतंत्र है ! और इसका शोभा-सुंदर है!
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-गंगेश गुंजन 22 मई 2018

Tuesday, May 15, 2018

भुलक्कड़ जनता का यह प्रौढ़ लोकतंत्र !

भुलक्कड़ जनता का यह प्रौढ़ लोकतंत्र !
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सच और झूठ का प्रयोगात्मक घालमेल और चतुराई का खेल है राजनीति। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का यह एक आजमाया हुआ व्यवहार है जो कालांतर में दलीय विचार के अनुरूप उसके चरित्र का अंग होते  हुए दलीय स्वभाव और उनका राजनीतिक व्यवहार तथा विचार बन गया है। सिद्धांत और आचरण की मूलभूत नैतिकता भी सुविधा और अवसरोचित वेग से बदलती रहती है। इसी प्रक्रिया में नैतिकता सामाजिक जीवन में उदासीन होती गई है। राजनीति में तो नैतिकता पहले ही अप्रासंगिक हो चुकी है।
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गंगेश गुंजन।१६.५.२०१८.

मनोरंजन के विकल्प

मनोरंजन के विकल्प
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कोई मनोरंजन मुकम्मल हो ही‌नहीं सकता जिसमें मूर्खता की छौंक न पड़ी ‌हो। आम तौर  से तो मैं इस शाम-रात के समय टीवी चैनलों के कुछ चुने हुए हास्य भरे मनोरंजन सीरियल ही देखता हूं। दिल बहलता है।लेकिन आज कर्नाटक चुनाव परिणामों पर तमाम टीवी चैनेलों पर छिड़े घमासानों को देखकर‌ ही मनोरंजन किया।और यह भी लगा कि ऐसा करके मैंने कोई ग़लती नहीं की। यहां तो दिल ही नहीं दिल्ली बहल‌ रही‌ थी ! इसमें मैंने कुछ और ज़्यादा ही मनोरंजन प्राप्त किया,क्योंकि चैनेलों के ये विदूषक भी नैसर्गिक प्रतिभा के बड़े धनी अभिनेत्री-अभिनेता रहते हैं।‌
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-गंगेश गुंजन। १५.५.’१८.

Sunday, May 6, 2018

नामवर जी एनडीटीवी

प्रोफ़ेसर नामवर सिंह और रवीश कुमार जी-NDTV के इस सद्य: प्रकरण पर मैं खुश भी हो रहा हूं।खुश यह सोचकर भी कि हिंदी का कोई लेखक इससे पहले शायद ही इस बुलंदी और ऐसे महत्व के साथ मीडिया/चैनेल के लिए टी आर पी का सबब बना है !
    इस पड़ाव पर भी हिंदी के नामवर जी क्या हैं,इसका एक दिग्दर्शन है !
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गंगेश गुंजन। ७.५.'१८.

रात और दिन और ऊषा

(३.)
रात और दिन और ऊषा : एक प्रेम त्रिकोण
               एक तीसरी कहानी भी।
लेकिन एक कथा यह भी है कि अंधकार और प्रकाश दोनों बहुत गहरे मित्र थे। दोस्त। और जैसा कि होता है बचपन से साथ रहते-रहते युवा हुए। तो युवाओं के मन में जो बातें आती हैं भावनाएं होती हैं,उनके भीतर जैसे संवेग और संवेदनाओं का विकास होता है तो उसके हिसाब से स्वाभाविक रूप से दोनों में भी हुआ। दोनों के दिन बहुत आराम और आनंद से बीत रहे थे। कि तभी एक समस्या हुई। इन दोनों के बीच में एक प्रेममयी सुंदरी का प्रवेश हुआ। दोनों ही उस पर प्राण देने लगे। उधर वह सुंदरी भी दोनों को प्रेम करने लगी।अपने लिए दोनों की आकुलता देख कर अच्छा-अच्छा महसूस करने लगी। लेकिन सुंदरी को एक समस्या थी। सुंदरी दोनों को एक ही समान प्रेम जो करने लगी थी।
दोनों में से किसी एक को चुनना उसके लिए बहुत बड़ी मुश्किल थी। वह दोनों को ही इतना चाहती थी कि किसी को निराश और दुखी नहीं कर सकती थी।
इसको लेकर तीनों के बीच बहुत तनाव चल रहा था बहुत दिनों तक कोई समाधान ही ना मिले। दिनों तक तनाव और झगड़े की स्थिति बनी रहती। अतः दोनों मित्र अलग-अलग बेचैन असंतुष्ट दुखी बने रहते। यह समझ ही नहीं पाते कि क्या रास्ता निकालना चाहिए ?
इसी दु:ख और उधेड़बुन में दोनों को एक दूसरे पर सहानुभूति भी हो आती। जैसे मैं उसके बिना नहीं रह सकता हूं वैसे ही वह भी तो उसके बिना नहीं रह पाएगा। दोनों दोनों की तरफ से सोचने लगते हैं। फिर दोनों ने आपस में मिलकर भी बहुत सोच-विचार किया। इस प्रकार वे जब सुंदरी के बारे में सोचते तो उन्हें महसूस होता है कि हम दोनों से अधिक मुश्किल तो सुंदरी की है जिसके लिए दोनों एक दूसरे से तने हुए हैं।
तब एक समय दोनों दोस्त बैठते हैं। मिलते हैं।तय करते हैं। बहुत विचार विमर्श के बाद यह निश्चय होता है कि
-’ठीक है,रात भर सुंदरी,रात के पास ही रहेगी और जब सुबह होने लगेगी तो रात, ऊषाकाल को  दिन के साथ कर देगी। इस तरह से दिनभर ऊषा उसी के साथ रहेगी।
        तभी से दोनों  मित्र परस्पर अपना यह आदर्श वायदा निभा रहे हैं। सूरज शाम को ढल कर रात बन जाता है और सुबह जब निकलने लगता है तो उषा के साथ उगने लगता है।
*
-गंगेश गुंजन 9 सितंबर 2017 ईसवी

Friday, May 4, 2018

कहना-सुनना सब बेकार

कहना सुनना सब बेकार यह भी है बहरी सरकार आकर जो ये सोये थे अब भी सोते हैं फुफकार अबके इनको बतला ही दो हो जाएँ ये भी तैयार -4 feb.'17 g.g.

हया का पैमाना


हया का कोई पैमाना हो
इनके क़द का कोई आईना हो
गंगेश गुंजन।

Wednesday, May 2, 2018

कुछ छोटे-बड़े दु:खों की झाड़ियां !

कुछ छोटे बड़े दुखों की झाड़ियां

🌳🐦🐦
तो मैंने पाया कि हर एक दिन कुछ ना कुछ छोटे बड़े दु:खों की झाड़ियां मेरे इर्द-गिर्द उग आती हैं। देखते देखते मेरे घुटने से ऊपर कमर कंधे तक फैल गई हैं । दु:खों की यह झाड़ियां बेहद कंटीली हैं,और इनसे निकलती हुई वानस्पतिक गंध भी उबाऊ और अप्रिय है । तो ज़ाहिर है बहुत चुभती है । हाथ में कोई हंसिया या कुल्हाड़ी नहीं ना कुदाल कोई कि काट-छांट कर अलग करता रहूं ।
   सुबह उठने लगा तभी मेरे ज़ेहन में आया कि सारी झाड़ियां अगर जो मेरे सामने एक ही वृक्ष के रूप में हो जाएं ! थोड़ा सा कोई बरगद,पीपल,पाकड़ ऐसा ही कोई बृक्ष तो कदाचित दु:ख कम लगे। चुभन कम लगे ।और गंदगी कम सो मैंने अपने तमाम दु:खों को सोच-सोच कर इतना बड़ा-इतना बड़ा कर लिया कि अब वह किसी के लिए बरगद है,किसी के लिए पीपल है,किसी के लिए पाकड़ ! और मजे की बात यह है अब मैं उसके नीचे आसन लगाकर बैठ गया हूं । दु:ख ऊपर-ऊपर फैला है।
   मैं उसी को अपनी छाया बनाए निश्चिंत होकर नीचे बैठा हुआ हूं। और ऊपर से तसल्ली है कि हज़ारों अपने छोटे-छोटे व्यर्थ के दु:खों को एक विशाल वृक्ष बना लिया है।
    मैं तो अपने दु:खों से हल्का हो ही गया हूं,अब इस वृक्ष पर कितने पंछी परिवार के घोंसले बन गये हैं।नित्य एक न एक कोई माता पंछी अंडा देती है।इतने छोटे-छोटे पक्षी खुद आकर घोसलों से बाहर निकलते हैं। घोसलों से उतरते हैं चिन-चिन चिन-चिन चिन-चिन करते रहते हैं।और अब मेरे दु:ख की आवाज जो आह-कराह का शोर बन गई थी अब इन पंछियों से, हवाओं के पत्तों से, गाड़ी खींचते बैलों के गले की घंटियों, बटोही के पद चापों के संगीत से भरा रहता है।अपने नानी गांव से गाते हुए गांव के मार्ग पर मैं,बैलगाड़ीवान की तरह एक विशाल वृक्ष की छाया में धूप बिताने बटोहियों के साथ हो जाता हूं । कुछ देर टिक जाता हूं।
चैन है।      
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-गंगेश गुंजन।२५.२. '१८ई.

Tuesday, May 1, 2018

काले अक्षरों के लाल अख़बार।

काले अक्षरों के लाल अख़बार।
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लाल रंग भटरंग* हो गया लगता है
कुंद हो गयी है हंसिया की धार
ख़ुद अपने ही अपनों के कपाल
फोड़ता हुआ लगे हथौड़ा !
जबकि अब भी जैसी ही‌,
खेती-बाड़ी‌ है,
पक रहे ही हैं फसलों के खेत।
झूमते ही हैं मौसमी बयार मे
गेहूं के सुनहले शीश !
     किसानों का आत्मदहन है लगातार।
छप ही रहे हैं -
काले अक्षरों में लाल अख़बार !
🍁
*वह एक रंग जो कहीं फीका कहीं गाढ़ा अतः सहज न दिखे, मैथिली में उसे भटरंग* कहते हैं।

-गंगेश गुंजन 30 अप्रैल 2018.