Friday, January 26, 2024

ग़ज़लनुमा : यादों से पहले माज़ी का मंज़र

                    🌼

यादों से  पहले माज़ी का मंज़र था
बाद नदी के आगे एक समन्दर था।

सजी धजी मीना बाज़ार व' मोहतरमा
और सामने कोई खड़ा क़लन्दर था।

अभी-अभी तो नेता की मजलिस छूटी
और अभी ही भड़का कोई बवंडर था।

अबके भी बादल बरसे बिन लौट गये
धरती  के आगे  शर्मिन्दा अम्बर था।

अन्देशे हर सू क्या अनहोनी हो जाए
ऐसे में इक फ़ोन अजाना नंबर था।
                          ••
                    गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, January 23, 2024

शे-एर नुमा : सिमट कर रह गया लगता है

सिमट कर धँस गया लगता है जीवन ही सियासत में 

अभी तो गीत गाना इश्क़ होना,चाय भी  सियासत है।

                    ••                                             गंगेश गुंजन                                  #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, January 22, 2024

चित्त इतना क्यों है उद्विग्न आज?

      किस अज्ञात बेचैनी से चित्त                       बहुत उद्विग्न है आज।

                     गंगेश गुंजन                                          २२.०१.'२४

Friday, January 19, 2024

मेघाच्छन्न प्रतिबद्धताओं में

💨         मेघाच्छन्न प्रतिबद्धताओं में 

     लिख पढ़ की दृष्टि से प्रतिबद्ध
रचनाकारों का अभी अकाल काल चल रहा लगता है। सच और यथार्थ तो फिलहाल दलीय राजनीतिक सत्ताओं के मीडियाओं की लुक्का छिप्पी भर बन गया है। सार्वजनिक जीवनके सभी यथार्थ किसी न किसी राजनीतिक सत्ता की ही उपज भर प्रचारित होने रहने के कारण अपने-अपने सकल प्रतिबद्ध अपनी ज़िद से ही तमाम चैनेलों पर पक्षीय यथार्थ गढ़ कर सेवायें दे रहे हैं।काम चला रहे हैं।ऐसा सिर्फ़ साहित्य में ही नहीं, प्रखर उग्र पत्रकारिता में भी आम लगता है। साधारण जन के लिए तो यह और खतरनाक है।आख़िर उनका भी तो कोई अपना पक्ष है। इस घटाटोप को वे क्या समझें और करें ? किस तरफ देखें,जायँ।
  जाने किनके पास अपना अपना कैसा विश्वस्त सूचना-तंत्र है कि वे भरदेशी समाज राजनैतिक सच्चाइयों को आर-पार देख परख लेते हैं,समझ लेते हैं और मन मुताबिक़ कहने के लिए सान्ध्य सत्यों की भी बारात भी सजा लेते हैं। आश्चर्य होता है।
साधारण जन और सिर्फ़ लेखक इसमें बौआ जाता है। भटक जाता है।उसमें तो
किंकर्तव्यविमूढ़ता की परिस्थिति व्याप्त है।
    पत्रकारिता तो ख़ैर रोज़मर्रे की खेती है लेकिन इस घनी अनिश्चितता के दौर में कुछ दिनों तक कविता लिखना स्थगित नहीं रखा जा सकता ? मैंने तो सोचा है।
               #उचितवक्ताडेस्क।

Thursday, January 18, 2024

दो पंतिया: फटी चिटी ख़ुशियाली से

फटी-चिटी ख़ुशियाली से अब बिल्कुल दिल भरता है नहीं।

होता कोई एक मुकम्मल सिर पर अर्श शामियाना।                                       

                        *                                               गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क। 

Wednesday, January 17, 2024

शे-र नुमा :

  बाहर से डर कर घबरा कर मैं                   अपने भीतर भागा,                               और घिर गया और डर गया                 और तीरगी तन्हाई से।

                गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।

Wednesday, January 10, 2024

ग़ज़लनुमा : आलम में तुम भी गुंजन जी

                 🌿 🧘🌿
     दिल का वो भी क्या आलम था
     क्या आलम है दिल का  ये भी !

     धरती पर  अब क्या धरती है
     तब यह धरती क्या धरती थी।

     वो गंगा तब क्या गंगा थी
     अब कैसी  हैं ये गंगा जी।

     बचा हुआ शायद हो मेरा
      पटना भागलपुर औ राँची। 

     किन ख़्वाबों में रचे-बसे हो 
     तुम भी ना तुम भी गुंजन जी।
                       🍂🍂
                   गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, January 8, 2024

श्राप देता हूँ कि अगला जनम आपलोगों का

🌓
.    अभी जो सबसे बड़ी ख़बर निकल                  कर सामने आ रही है…

                          💥
   आजकल सौ पचास ख़बरें ही नहीं सौ दो सौ ‘सबसे बड़ी ख़बर ही निकल कर आती है।’ कोई साधारण या छोटी ख़बर तो होती ही नहीं। इतने बड़े देश के विस्तारसे दिल्ली पहुंँचते-पहुंँचते ख़बर सबसे बड़ी बन कर सामने आ जाती है। एंकरों के श्रीमुखों से बिहार के ककोलत और झारखण्ड के हुन्ड्रू झरने की तरह छल छल नि:सृत होने लगती है।
    ख़बर फिर भी एँकर को वह ख़बर उतनी बड़ी बनती हुई लगती तो एंकर गण गला फाड़ू आवाज़ के आह्वान से उसे बड़ा बना कर ही छोड़ती / छोड़ते हैं।
   तो इन तार सप्तक वाले समाचार वाचकों ने क्या सोच लिया है ?
  बहुत जी जलता है तो अब कभी कभी शक़ भी होता है कि- आपलोग कहीं विदेशी कान मशीनों की कम्पनियों के लिए मॉडलिंग तो नहीं कर रहे हैं ? पगार तो, सुनते हैं आपलोगों को अच्छी ख़ासी मिलती है !
   आपलोगों ने अच्छे भले मेरे इतने सुरीले कानों की कैसी दुर्गत कर डाली है,मेरी ही नहीं मेरी तरह का टीवी-निर्भर एक पूरा का पूरा लाचार समाज है जो दिनानुदिन और बज्र बहिर हो रहा है अतः सिर्फ़ अपने लिए ही नहीं, इस सामूहिक हित में आज श्राप देता हूँ कि आपलोगों का अगला जनम
पुराने ज़माने के ग्राम-कोतबाल में हो ताकि भर रात गांँव भर ‘जागते रहो-जागते रहो’ चिकरते-बौआते बीते…

                   गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, January 6, 2024

कुछ भर मेरे मन में था : ग़ज़लनुमा

                     •
     कुछ  भर  मेरे मन में था
     बाक़ी  सब  दर्पण में था।

     मेरा मैं  तब  सुन्दर  था
     वो जब कभी नमन में था।

     चलते-फिरते कहाँ मिला
     जो एकान्त मगन में था।

     उसका ही था कॉपी राइट
     पहले मिरे छुअन में था।

     सुख का अपना होगा स्वाद
     दु:ख भी किसी सहन में था।

     नया - वया सब भ्रम ही है
     जो था प्रथम मिलन में था।

     अरुणिम अधर क्षितिज पर जो
     उषा-मृदुल चुम्बन में था।
                        ।📕।
                    गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Thursday, January 4, 2024

अपने मयार से उतरा हुआ

                      🕊️।                          उतर गया अपने मयार से मैं ख़ुद ही ये ध्यान हुआ,
ऐसे में दुश्वार हो कहीं हम तक दोस्त का आ सकना।
                       🍂🍂                                             गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क

दुःख दस्तक दे करके ख़ुद

  दु:ख दस्तक दे करके ख़ुद ही लौट
  गया होता 
  मेहमाँ को कैसे लौटाते बाहर से घर      
  बुला लिया।
                    गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्तडेस्क

Monday, January 1, 2024

मैं कोई अख़बार नहीं हूँ : ग़ज़लनुमा

.                    •
     मैं कोई अख़बार नहीं हूँ
     वो चौथा व्यापार नहीं हूँ।
                    •
     सब कुछ छूटा अभी नहीं है
     बिखरा जन आधार नहीं हूँ।
                    •
     दह बह गये तुम्हें लगता है
     कोशी का,घर-द्वार नहीं हूँ।
                    •
     जाती-आती-जाती रहती
     मैं वो भी सरकार नहीं हूँ।
                    •
     जनता का हूँ उसके घर में
     नेता  के  दरबार  नहीं  हूँ।
                    •
     सधे  हाथ में  है लगाम भी
     नया नहीं अब वो सवार हूँ।
                    •
     इतना रह  कर महानगर में
     वंचित टोला,गांँव-जवार हूँ।
                    ••
              गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

अब और इसी राह प'चलने की ज़िद करूँ

अब और इसी राह पर चलनेकी ज़िद करूँ

काँटे बिछाये राह काट ले कोई जितना।

                      ‌🕊️

                   गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।