Thursday, March 30, 2023

मनुष्य का मन मस्तिष्क : आज के पेन ड्राइव का पहला प्रारूप

                      ⚡⚡  
 मनुष्य का मन मस्तिष्क : आज के              पेन ड्राइव का पहला प्रारूप                                             *    
इसकेे बारे में एक प्रसंग सुनाता हूंँ।    कहते हैं कि सृष्टि करते हुए ब्रह्मा ने दिव्य दृष्टि से यह  देखा कि चाहे कितनी भी बड़ी पृथ्वी हो, इस पर कितनी ही जगह क्यों न रहे लेकिन मौजूद इतने सारे प्राणी इतनी सारी प्राकृतिक संपदाओं में मनुष्य की मेधा से नित-नित और नयी वस्तुएँ बन कर आती रहेंगी। नए-नए अनुभव,ज्ञान विज्ञान  विकसित होते जाएँगे और एक दिन ऐसा आएगा कि यह धरती मनुष्य के कृतित्वों से रंच मात्र भी खाली नहीं बचेगी। विचार और चीज़ों से पूरी पृथ्वी पट जाएगी।जबकि ज्ञान व्याकुल मनुष्य के मस्तिष्क का प्रसार होता ही चला जाएगा। स्वभाव के अनुरूप आदमी सुख-सुविधा के उपाय में,आविष्कार करते ही रहेंगे।नयी वस्तुएँ बनती ही रहेंगी। ऐसे में उन्हें सहेजने-रखने की भारी समस्या होगी।  महा विपदा की तरह। तब एक ऐसे गोदाम की भी ज़रूरत होगी जिसमें सबकुछ इस प्रकार क़रीने रखे जायँ कि ज़रूरत इच्छा होते ही उसे निकाल कर उपयोग किया जा सके। तो उन्होंने सोचा एक ऐसा भंडार गृह तो अवश्य ही होना चाहिए जिसमें उन सभी का क्रमवार समावेश हो सके जो पृथ्वी धरती पर नहीं अँट पाएँ। उन्हें भी उपयुक्त ढंग से सुरक्षित-संरक्षित किया जा सके। उस स्थान की संभावनाओं पर विचार किया गया। तब उन्होंने बहुत चिंतन-मनन एवं अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ गहन विचार-विमर्श के बाद यह तय किया कि ऐसे भांडार की सभी गुंजाइश मानव मन में विद्यमान है अतः भांडार इसे ही बनाया जाय। यही एक है जो अपने सूक्ष्म स्थान में सृष्टि का सब कुछ समो भी लेगा और अनन्त काल तक उन्हें सिलसिले से संभालता जाएगा। मनुष्य की सृजन प्रक्रिया को निरन्तर सुचारु बनाये रखेगा। इस प्रकार मानव के निरंतर उत्कर्ष में भी कोई बाधा नहीं आएगी। इस मंथन के बाद ब्रह्मा ने मनुष्य का साँचा बनाया और उसमें भी विशेष मनुष्य के मन-मस्तिष्क का यह सुव्यवस्थित रूप रचा जो आज के इस विराट डिजिटल युग का पहला पेनड्राइव हुआ।     आप क्या सोचते हैं ?                  
              गंगेश गुंजन।                                     #उचितवक्ताडेस्क।
        ( पोस्ट पुनः दिया गया) 

Monday, March 27, 2023

विश्व नाटक दिन: दोपात्रीय नाटक

🌿⚡।         कोरोना बुलेटिन।           ⚡ 🌿
                    २७मार्च,२०२०.
                          🌺
        आज दो पात्रीय संवाद-नाट्य।
    आज विश्व रंगमंच दिवस पर विशेष भेंट: 
               ।। दृश्य:एक मात्र ।।
 
   [चारों ओर से बंद ड्राइंग रूम में बैठे आमने-
    सामने क़ैदीनुमा दो लोग।१.बेचैन बुज़ुर्ग और
   २.बेफ़िक्र युवक। यानी दादा-पोता ]
                         *
    ( बहुत व्याकुलता से, खीझ और गुस्से में) : 
    दादा : पता नहीं यह अभागा कब जायेगा
    यहांँ से।
    पोता : यह कोई जिस्म का फोड़ा नहीं ना है
    दादू कि एक-दो बारी मरहम लगा देने से चला
    जाये।आप  परेशान क्यों हो रहे हैं? चला
    जाएगा न।
    दादा : अरे मगर कब जाएगा ? चला जाएगा।
    (और भी ज़्यादा ग़ुस्साते और ख़ीझते ) ।
   पोता:  वीसा ख़त्म होते ही चला जाएगा।
   (इत्मीनान से मुस्कुराते हुए )...
   दादा: अब इसका वीसा से क्या मतलब है?
   (चिढ़ कर)
   पोता: है न दादू। यह इम्पोर्टेड बीमारी है।
   जानते ही हो। लेकिन कोई नहीं। आपके
   ज़माने में वो
   एक गाना बड़ा हिट हुआ था न ?
   दादा: (बे मन से,उदासीन भाव से) कौन-सा
   गाना ?         
   पोता : जाएगा-आ-आ जाएगा-आ-आ
   जाएगा जाने वाला, जाएगा-आ-आ....
   दादा : अरे वह आयेगा आयेगा था। जायेगा
   जायेगा नहीं...(तनिक सहज होते हुए गाना
   सुधार कर सही किया तो पोते ने मुस्कराते हुए
   कहा-)
   पोता: हां दादू। मगर अब आपका आयेगा
   वाला सीन-सिक्वेंस बदल गया। यह तो
   जाएगा-जाएगा वाला है।
   (और काल्पनिक गिटार छेड़ता हुआ बड़ी अदा
   से तरन्नुम में गाने लगता है-जाएगा जायेगा
   जायेगा जाने वाला जायेगा।इस पर )
   दादा: बहुत शैतान हो गया है तू ...रुक।
  ( वह थप्पड़ दिखा कर उसकी ओर लपकने
   लगते हैं और गाते-गाते ही पोता ड्राइंगरूम का
   पर्दा समेटने लगता है। सामने बाल्कनी दीखने
   लगता है। सचमुच में गिटार की कोई मीठी धुन
   सुनाई पड़ती है। )
                        🌿🌳🌿

                   गंगेश गुंजन 

 🦚    #उचितवक्ताडेस्क प्रस्तुति   🦚

विश्व रंगमंच दिवस पर : राजधानी में रंगमंच

.       राजधानी का रंगमंच             .
                     •
 सिद्ध से सिद्ध प्रसिद्ध अभिनेता
 देर तक मंच पर विराज जाय तो
 अभिनय-मूक हो ही सकता है,
 पटकथा और चरित्र के हक में मंच
 पर रहना ही हो अपरिहार्य तो 
 एक सीमा तक ही चुप रहकर 
 रह सकता है- किरदार ।
 चुप्पी साधने का अभिनय करते
 हुए इतना थक जाता है कि 
 उबासियों का बिस्तर हो जाता है ।
 सो लेते हैं उसी पर कितने।आराम
 से
 पता भी नहीं चलता उसे।
 महान हो मंच पर कितना भी 
 अभिनेता
 देर तक रहकर भद्द ही पिटवाता है 
 हूट कर दिए जाने तक झेल जाय 
 तो वह उत्कृष्ट कलाकार विदूषक
 हो जाता है
 कुछ कला-प्रवीण आलोचक
 मानते ही हैं, 
 अभिनय प्रवण परिपक्व ही चरम
 पर अपने परिणत प्रतिष्ठित होता
 है, श्रेष्ठ विदूषक!
    सिर्फ़ सियासत का मामला नहीं
 है यह।
                      •
 प्रार्थना में उस चरम पर पहुंँचने से
 पहले
 अपनी भूमिका सही सलामत कर
 गुज़रे,
 देर तक मंच पर रखा न जाय,
 अभिनय-विभोर होने पर वह भूल
 जाता-
    रंगमंच पर है !
 लेखक निर्देशक से प्रार्थना करते हैं
 दया करके तब लेखक निर्देशक 
 पत्थर मूरत कर देता है
 अकसर कर देता है,लेकिन देखें
 दुर्भाग्य-
 पत्थर मूर्ति भी तो यंत्र तकनीकीय 
 होना हुआ नहीं रहता इसलिए और 
 हास्यास्पद और दयनीय हो जाता
 है
 पटकथा की मृत्यु में कितना ही
 जमना चाह ले
 पुतलियांँ बारीक डगमगाती ही रह
 गईं  
 प्रकाश-व्यवस्था ने सार्वजनिक कर
 दीं उसकी आंँखें।
 प्रकाश जहांँ भी हो,करता है
 प्रकाश का ही काम
 यहाँ रंगकर्म का यही तकाजा, 
 अभ्यास और अदा है।
 इस थिएटर में अखिल भारत है
 अभिमंचित हर नाटक यहांँ
 अखिल भारतीय है ! 
 अखिल वैश्विक इरादे और
 अभियान पर !
                   •
 दया करें या दुःख यहांँ
 एक से एक दिग्गज बड़े लोग जो-
 व्यवसाय उद्योगी से लेकर कतिपय
 प्रबौद्धिक लेखक-कवि भी संभव
 हैं-भ्रष्ट चौपट!
 सत्ता-नियंता-नायकों का सफल
 प्रतिपक्ष मंच-अभिनय 
 कर करके विभूषित विदूषक हैं! 
 चालू है संगठित रंगकर्म ।
                    •
 राष्ट्र् के स्टील-फ्रीज़्ड अभिनेता
 कई मदों में सम्मान सुशोभित
 वरिष्ठ नागरिकों में इत्मीनान से हैं
 बैठे चैन की उबासियांँ ले रहे हैं। 
 मंच आकर्षक लाल अंधेरे में डूब
 रहा है,
 सुपूर्वाभ्यसित परदा कलात्मक
 उत्कर्ष पर गिरने को है
 दिव्य रहस्य के स्याह आलोक में   
                      •
     एक अभी-अभी जवान हुआ 
 पांँचवांँ अट्ठारह साल का नौजवान
 हिकारत से पूछता है-
                  ‘ये लोग कौन हैं ?’ 
                     ••
              गंगेश गुंजन     
        #उचितवक्ताडेस्क।

Friday, March 24, 2023

ग़ज़ल नुमा : दुःख दूजे में बाँट रहे हैं ।

                    🐾
      दु:ख दूजों में बाँट रहे हैं
      जीवन अपना काट रहे हैं।

      कितनों को आ-जाते देखा
      हम नावों के घाट रहे हैं।

      वक़्त अगर्चे वो भी गुज़रे
      बीमारों की खाट रहे हैं।

      वे तो ओछे दामों पर ही
      लगने वाली हाट रहे हैं।

      एक तराज़ू के दो पलड़े
      वस्तु एक पर बाट रहे हैं।

      गाँव एक ही दो दुनियाएंँ
      भूखी इक,के ठाट रहे हैं।

      हाथ नहीं उठता कुछ माँगें
      वे कल तक जो लाट रहे हैं।
                       .
               गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, March 20, 2023

ग़ज़लनुमा : घर-घर तन्हा है घर में

 ।•।           ग़ज़लनुमा         ।•।

         घर-घर तन्हा है घर में
         तन्हा हैं हम भी घर‌ में।

         बाहर कम बेचैनी है 
         ज़्यादा तो है अन्दर में।

         दरिया लगा सूखने तो
         चिन्ता बढ़ी समन्दर में।

         कल रहता था वो जैसे
         अब जीते हैं हम डर में।

        नाच वही सब लगता है
        फ़र्क़ ज़रा है बन्दर में।

        भाभी गर बदली है कुछ
        दूरी आई देवर में।

        ऐसे नहीं छूटता वो
        भूल हुई सब धर-फर में।

        मामूली भी मसला क्यों 
        दीखे किसी बवन्डर में।

        बदल रहे हैं सब रिश्ते       
        जनता-नेता-अफ़सर में।
   
        बुझा-बुझा रहता है सच
        झूठ ख़ूब है चर-फर में।
                       •
                गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।   
               [पुनः प्रेषित]

Monday, March 6, 2023

इतनी सी जगह

📕            इतनी-सी जगह

  मिट्टी थी,पानी था,आग थी,
आकाश था,और आवश्यक हवा!
ये सब एक थाली भर अंँगनई में
पूरे वजूद में थे।
  डेढ़ कोठरी,हम तीन भाई,तीन
बहनें,
  हमारी जननी थीं।
घैलची,*  बस्ता रखने की तख्ती।
हम सब के लिए अपनी-अपनी
सांँस लेने की जगह थी।
  घुंँटन शब्द से परिचय नहीं
बहुत छोटी खिड़कियों से बहुत
प्रकाश आता था।
  आधी कोठरी के एकान्त को भी
लेता था अपनी ज़द में जहाँ,
यक्ष्मा ग्रस्त बड़ी दीदी अब-तब के
हाल में मामूली बिस्तर में फ़र्श पर
पड़ी रहतीं।      
  बर्तन धोते-धोते बीच-बीच में दीदी
को पूछती हुई ज़रा-सी ऊँची माँ की आवाज़ थी-
'कुछ चाहिए तो नहीं नीलम? बस
चुटकी भर। मैं आई।'
उस उतनी जगह में बीमार का नाम
सबसे नीरोग सम्बोधन था।
  मुक्ति के लिए उत्कंठित,सचेष्ट
ग़रीबी की शान्त ग़ुलामी
आज से कितनी भिन्न थी।

                        ••
  * घड़ा रखने की ऊंँची जगह।
                 गंगेश गुंजन.                                     #उचितवक्ताडेस्क।