📔 नाटकों का सामाजिक प्रारब्ध !
कुछ बहुत आवश्यक पटकथा नाटकों को लिखे और कहे जाने के समान ही अपने योग्य रंगमंच भी नहीं मिल जाता।कुछ महान् तक तो अंतिम रिहर्सल के बाद भी अभिमन्चित नहीं हो पाये। परिवर्तन के इतिहास में जेपी आन्दोलन जैसा उपकारी आलेख भी स्टेज रिहर्सल हो कर ही रह गया ! जन-मन को आजतक उसके फाइनल प्रदर्शन का इन्तज़ार है।
नाट्यालेखों का भी अपना- अपना सामाजिक प्रारब्ध होता है जैसे कुछ ख़ुदा टाईप नाट्य निर्देशकों का।
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
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