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अगर्चे चाहता तो था हमको
कभी बोला नहीं मगर इसको।
यूँ तो ख़ुद ख़त थीं वो आँखें
लिखा न,ज़ुबाँ से कहा मुझको।
कहाँ हों ये बयाँ दुश्वारिए दिल
मिले जो दोस्त उस-सा जिसको।
भेजता बुत ही कर क्या जाता
आदमी कर क्या मिला रब को।
डरे हैं यूँ फ़रेब से गुंजन
देखने लगे हैं डर कर सब को।
🌼
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। ०६.०९.'२३.
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