लोकतंत्र
*
मैं जिस ज़मीन पर खड़ा हूं मेरी नहीं है।
कभी भी खिसक सकती है पैर के नीचे से।
यह जमीन उस लोकतंत्र की है जो भी खुद
अपनी ज़मीन पर खड़ा नहीं,
किसी न किसी राजनीतिक दल के कंधे पर रहता है।
जैसे ही सत्ता बदलती है,लोकतंत्र भी बदल कर
उसी के आकार-प्रकार और स्वभाव-धर्म का हो जाता है।
हमारा लोकतंत्र स्वदेशी है, कि
बुद्धि-विचार की तरह आयातित ?
*
-गंगेश गुंजन।
Thursday, February 1, 2018
हमारा लोकतंत्र
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