Wednesday, February 21, 2018

भाषा मर्म :विश्व मातृभाषा दिवस

।। भाषा का मर्म ।।
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दु:ख पहले बहुत छोटा था।भाषा उसे समो लेती थी।
दु:ख जितना बड़ा होता था भाषा की गोद उससे बड़ी होती थी। धीरे-धीरे दु:ख अनुभव और बुद्धि का हिस्सा होने लगा।अब अनुभव के साथ मिलकर दु:ख कुछ ज्यादा सयाना होने लगा।मां होने तक भाषा ने युवा संतान की तरह मां होकर संभाला। दु:ख उससे भी बड़ा होने लगा।भाषा के कद से बाहर होने लगा। बात उससे बाहर और दुख इतना बड़ा हो गया कि भाषा उसके सामने असहाय और बूढ़ी हो गई। अनुभव का सिलसिला कम नहीं हुआ। रुका नहीं ।फैलता गया । पहले एक या दो दिशाओं में,फिर अनेक दिशाओं में ।शरीर की नसों के स्नायु संजाल की तरह दुख अपने स्वरूप को संचालित करने लगा ।भाषा स्वयं उस में बहने लगी । मां जो थी! भाषा स्वयं दुख का हिस्सा हो गई। ऐसा क्या हुआ कि भाषा जो अंतिम मां है,वह भी थक गई । ऐसा क्या हुआ कि भाषा अनुभव की अपनी ही संतान से पराजित हो गई ?
एक दिन मैं बहुत परेशान हो गया । बहुत ही चिंता और तकलीफ में भाषा से पूछा भी:
‘-तुम तो मां हो ! मैं इतना उद्दंड और आवारा कैसे हुआ कि तुम्हारी गोद,तुम्हारी बांहें और तुम्हारे कंधों से बाहर हो गया ?तुम तो मां हो तुमने क्यों नहीं संभाला ?’
भाषा ने माँ की ही तरह शांत धैर्य से कहा :
‘-बच्चे बड़े हो जाते हैं तो मांएं निश्चिंत हो जाती हैं।
माँ भी थकती हैं। उन्हें भी विश्राम चाहिए। मेरे गर्भ में वात्सल्य है प्रेम है करुणा है और मनुष्य की मनुष्य के सबसे बड़े,सर्वोच्च आनंद की सवारी-भाषा ! उसके योग्य शब्द शब्दों की सामर्थ्य।अब यह उसे लेकर तुमने जाति,संप्रदाय, धर्म,अंचल और खुद मेरी-भाषा की भी जितनी भीषण समस्याएं पैदा कर ली हैं, जैसे-जैसे अनुभव तुमने पैदा किए हैं इनके लिए तो मेरी मां ने मुझे बना कर भेजा नहीं था ! यह अनुभव ऐसे अंगारों वाले हैं इतने विकराल और सृष्टि भर मनुष्यता को नष्ट कर देने वाले हैं कि जिनके समाधान का मेरा कोई अभ्यास नहीं है । मेरी मां ने मुझे इन सब के लिए तैयार करके कहां भेजा था। यह अनुभव, यह मार्ग, यह प्राथमिकताएं तुम्हारी अर्जित की हुई हैं। सो इनकी जटिलताओं को इन के संघर्षों इनके दुष्परिणामों को कहने-सुनने-समझने और भुगतने लायक भाषा तो अब तुमको खुद बनानी होगी।अब तुमको ऐसी भाषा का आविष्कार करना होगा। मैं तो अपनी भूमिका पूरी कर चुकी हूं ।अब तुम्हें सर्वजन सुलभ सुंदर जीवन के लिए आवश्यक विवेक तक पहुंचाकर मैं जरा करवट लेकर विश्राम क्या करने लगी कि तुमने मुझे किनारे ही कर दिया ।
तो अब जाओ अपने इन महाविनाशी अनुभव के योग्य आकार, और  शिल्प-सांचा का भाषा विज्ञान तलाशो ! योग्य हो गए हो। तुम्हारे दु:खों ने तुम्हें योग्य बना दिया है। मैं भाषा हूं ।मां हूं किंतु अब तुम्हारे ऐसे सयाने हो जाने के बाद गूंगी बन गयी।

आगे छोटी-छोटी मेरी अनंत संतान हैं ।उनका पाठ बनना है । उनके पाठ को समझना है। उनके लिए तैयार रहना है। उनके नन्हे मुन्ने दु:खों के आकार प्रकार का कोई नया सांचा तैयार करना है । उन्हें बड़ा होने के लिए,अब की इस खू़ख़ार इच्छा आकांक्षाओं से भरे जीवन को समझने के लिए ।तैयार करना है ।और अब मेरी यही भूमिका है।

-गंगेश गुंजन

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