Monday, May 20, 2019

पर्यावरण: चिंतित फूलसखियां !

-गंगेश गुंजन। २१.५.’१९.


पर्यावरण विनाश के क्रम में वनस्पतियां बहुत चिंतित हुईं।पेड़ पौधे सब। दूब तक चिंतित हुई थी। प्रकृति के ये असुरक्षित अंग आपस में संवाद कर रहे थे। दूब तो बहुत ज्यादा चिंतित नहीं थी। सबसे अधिक चिंतित थे फूल ! उसकी प्रजातियां खुशबू,रंग और सुंदरताओं वाले विविध फूल पर चिंता की लहर दौड़ी तो एक सखि ने पूछा दूसरी फूल सखी से-
-इस विनाशलीला में तो अब हमलोग जल्दी मर जायेंगे।और क्यों खिलेंगे,किसके लिए?
दूसरी फूल सखी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया -देखो हम तो तब तक खिलेंगे जब तक मनुष्य की आंखों में हमें देखने का चाव बचा है और  रह है। नाक में सूंघने की स्पृहा। कोमलता से स्पर्श करने की इच्छा और किसी के जूड़े में,किसी के चरणों और किसी के हाथों में हमें हमारा गुच्छा थमाने का हृदय जीवित है । कौन हम अपने लिए खिलते हैं ?हम तो खिलते हैं मनुष्य के लिए।की आंख श्रद्धा जुड़े के लिए। सो जब तक यह है हमें कोई जला नहीं सकता हम यूं ही खिलते रहेंगे । सौरभ बिखेरते रहेंगे। लेकिन सखि,मनुष्यता ही कौन सुरक्षित है अब? वह खुद भी दो विचित्र जोखिम में पड़ी हुई है। तो हमारी उम्मीद थी तो कम ही उम्र की लगती है। पहली फूल सखी ने बहुत पागल बता से मुस्कुराए मुस्कुराए बोली-अभी भी तो हम दिन ही भर के लिए खिलते हैं सखी ! लेकिन हमारी 1 दिन की उम्र भी एक युग भर है। चिंता क्या ?
तभी एक नवजात का प्रथम रुदन सुनाई पड़ने लगता है और दोनों सखि फूल एक दूसरे को देख कर प्यार से मुस्कुराते हैं। तभी एक उल्लास के साथ कहती हैं- बच्चा रो रहा है! अभी-अभी धरती पर उतरा है !
-नहीं तो। यह तो पिलखवाड़ गाम के खुबलाल भाई रसन चौकी* बजा रहे हैं (ग्रामीण आदि शहनाई*)।
-सुनो-सुनो स्त्रियां गाना गा रही हैं…’ एक सखि बहुत ख़ुश होकर चहकने लगती है और कोयली (कोयल) बन जाती है।
तभी दूसरी सखी और भी उत्साहित होकर कहती है चल न वहां हम सोहर गाने चलें !
दोनों सखियां मिलकर जाने लगती हैं कितने भी एक बेटी है कहती है क्यों ने सब को साथ ले ले और मजा आएगा नहीं ले जायेंगी तो सब बाद में झगड़ा करेंगी।
लेकिन कई तो डालों में मूर्छित पड़ी हैं और कुछ डालियों पर लटकी हुई प्यास से तड़पती पानी-पानी पुकार रही हैं ! यह सब देख कर
इन्हें साथ लेने के लिए आई फूल सखि बेचैन हो जाती है। और इधर उधर तलाशने लगती है। वहीं पास में ही तो कितना अच्छा झरना था वह कहां चला गया? अरे उसे सूखे हुए तो
जमाना हुआ ! अब क्या करें बेचैनी में इधर-उधर तलाशती है। तभी उसे ध्यान आता है उस चट्टान की उस तरफ़ खोह में एक बड़ा-सा गड्ढा है जो पत्थरों से ढंका हुआ था हरे पत्तों से छुपा हुआ भी था। झरना के सूख जाने पर हमलोगों रो-रो कर बहुत आंसू बर्बाद करते रहते थे तो हमलोगों ने …..
के बाद सोचा था किस तरह पुनीत का कुछ मतलब नहीं है क्यों ना हम अपने आंसुओं को जमा करके जगह कि जब बिल्कुल ही कहेंगे पानी ना मिलने लगे तो अपनी-अपनी सोच है उसे ही बूंद बूंद पीकर अपनी जान बचाने का उपाय रखें। वह बेजान उसी तरफ भागती है और जल्दी हरे पत्ते के दोहे में थोड़ा जल जाती है और लटकी हुई चिड़िया की चोंच के पास ले जाती है। लटकी हुई चिड़िया नन्हें पंख परंपरा ने लगती है और फिर फुदकने लगती है। और इस तरह अब उड़ते हुए कई फूल पक्षी उस नवजात शिशु की तरफ जाने लगते हैं। गाना सुनते-सुनते जल्दी ही वहां पहुंच भी जाते हैं। और आश्चर्य से देखते हैं वहां तो कई स्त्रियां सोहर गा रही हैं ! कुछ घूंघट काढ़े कुछ सिर पर पल्लू रखें। और तो और स्त्रियों में तो सुधा मल्होत्रा बैठी हैं, विंध्यवासिनी देवी बैठी हैं,शारदा शारदा सिन्हा और यह तो मालिनी अवस्थी-विजय भारती सभी हैं ! इस बच्चे का सोहर गा रही हैं। कि तभी उस महफिल में एक ढब की महिला आती हैं जो सलवार पहने हुई हैं।उनके कानों में बड़ी-बड़ी सुंदर बालियां हैं। सिर पर काज़ किया सफ़ेद पल्लू है।कंधे पर आसमानी रंग दुपट्टा। पान खाए हुई हैं। और बहुत मुस्कुरा रही हैं। जैसे रास्ते से ही गाती आ रही हैं।
लेकिन सहरसा नं की आरती ज्यादातर महिलाएं आंख-भौं सिकोड़ती उन्हें आने से रोकने लगीं- नहीं तुम इसमें नहीं आ सकती हो और हमारे साथ बैठकर गा नहीं सकती हो -क्यों चली जाऊं भला ? वह महिला बिन गुस्साये मुस्कुराती हुई पूछती हैं!और अपने दुपट्टे से प्यारा सा एक ढोलक निकालती हैं। अपने एक ठेहुन के नीचे दबा कर ढोलक पर थाप देने लगती हैं...
एक घूंघट से ही चीखती हुई बोलती है-
तुम हमारे गांव की नहीं,दूसरे देस की हो। हमारे समाज की नहीं, बाहर से आई हो। हमारी खुशी में कैसे शामिल हो गई?
तुम चली जाओ यहां से।’ वह स्त्री उनकी बांह पकड़ कर झकझोरती हुई उठ जाने कहती है।
वह महिला कोई इनसे दुबली-पतली नहीं मस्त है सो अड़ जाती है।

-नहीं मैं तो नहीं जाती। मैं तो रहूंगी कोई रोक ले। यह बच्चा है। यह मेरा भी बच्चा है।तुम्हारे तुम्हारे गांव का थोड़े ना है? और जो मेरे गांव में बच्चा ना हो तो सोहर गाने मैं कहां जाऊंगी ? मेरे गांव में बहुत दिनों से कोई बच्चा नहीं आया और मेरे गले में सोहर गाने की बेकरी घुस गई थी तब पता चला तो मैं भागी भागी आ गई अब तुम कह रही हो नहीं आ सकती।
यह क्या न्याय है ?
झकझोरी जाकर भी वह बैठी ही रहती हैं। गांव की वह स्त्री इसे उठ जाने को हल्ला मचा रही है। वातावरण में थोड़ी है अशांति और बाधा पहुंचती है कि कइयों की आंखें इधर घूमती हैं। और झगड़ा होते देख कर गाती हुई स्त्रियों में से अचानक शान्ति जैन जी उठ कर जोर से कहती हैं-अरे रेशमा दीदी,रेशमा दीदी!’ वह आकर घूंघटी महिला से भिड़ जाती हैं -अरी मूर्खा यह क्या कर रही है ?
अरे यह रेशमा जी हैं रेशमा जी।’
शान्ति जी के कहने पर वह ठिठक जाती है और किनारे चली जाती है। अब जो लोगों का नाम इस तरफ जाता है तो हर बड़ी मच जाती है। स्वागत में आने के लिए विंध्यवासिनी जी  खड़ी होना चाहती हैं तो लुढ़क ही जाती हैं। वह तो बगल में बैठी कुमुद अखौड़ी जी चाची को संभाल लेती हैं। तब तो देखने से लगने लगा कि जैसे अभी-अभी ही एक औरत बच्चा जन्मा हो! और लगे हुए दूसरे आंगन में फिर लोगों ने सोहर गाना शुरू कर दिया है।
अजब त्योहार हो गया था!
यह सब देख कर उन्हें ख़ुशीसे और भी आश्चर्य होता है। लेकिन तभी वे उदास हो जाती हैं। चिंता होने लगती है कि इतनी नामी गायिकाएं हैं। भला हम छोटे फूल-पंछियों को अपने साथ सोहर क्यों गाने देंगी ?’ वे अभी सोच ही रही थीं-क्या किया जाए ? शिशु को कैसे देखें? कैसे सोहर गाएं कि तभी, गाते-गाते ही इन पर चाची विन्ध्यवासिनी जी की निगाह पड़ जाती है। तब वह गाती भी रहती हैं और इशारे से पास भी बुला लेती हैं। दो-तीन-चार को एक साथ अपनी गोद में बिठा लेती हैं और सोहर गाती रहती हैं। इसी की देखा-देखी उत्साह में एक-एक पक्षी और फूल सभी के कंधे गोद में बैठ जाती हैं।और उनके साथ अपनी चोंच हिला कर गाने लगती हैं। आश्चर्य होता है कि छो जिनकी गोद-कंधे पर हैं सबों के पंख को नरम हथेली से छूते-सहलाती हैं। बीच-बीच में इन्हें देख कर मुस्कुराती हैं गाना गाती है! अभी यह गाना चली रहा है की एक मचलने लगा है-बच्चा को देखेंगे-बच्चा को देखेंगे !

कि बाहर से जबरदस्त आवाज आती है-फटाक् फटाक् ! सभी डर-सहम जाते हैं। तभी वहां कुछ लोग तीर धनुष लेकर तो कुछ हाथ में पत्थर लेकर वहां पहुंच जाते हैं।वे सब आदमी की तरह हैं लेकिन उनके दांत और नाखून बहुत बड़े-बड़े डरावने हैं। गुस्सा होकर

एक दूसरे से पूछ रहे हैं-

-कहां है? कहां हैं वे सब?आखिर जंगल खाली कैसे हो गये हैं।वे सभी कहां छुपे हैं ? कि तभी विंध्यवासिनी जी ने गोद के पक्षियों- फूलों को आंचल में छुपा लिया।और अचानक गाते-गाते थरथराने लगी हैं!
-गंगेश गुंजन 20 मई 2019

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