ग़जल
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हो भी रहा है और कुछ कर भी रहे हैं लोग।
हर हाल में जीते हुए, मर भी रहे हैं लोग।
राजा के तर्क-तरीक़ों-बातों से इत्तिफ़ाक़।
रख भी रहे हैं और कुछ डर भी रहे हैं लोग।
देखें तो सालों साल में क्या कुछ भया नया।
जम्हूरियत के तमाशे कर भी रहे हैं लोग।
अफ़सोसके मौक़े हैं बहुत क़ौम के भीतर।
इक इनक़लाबकी तरफ़ बढ़भी रहे हैं लोग। ये सियासत हुई के कोई सुनहरी क़ैंची।
सब अपने नाप कपड़े सी- कतर रहे हैं लोग।
कुछ भर रहे उन्नीस में उन्चास की आहें। कुछ ख़ुद को नहीं रहनुमा बदल रहे हैं लोग। लगता तो है सब तैर रहे एक ही दरिया। इक और भरम देशहित लड़ भी रहे हैं लोग।
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गंगेश गुंजन
Thursday, May 16, 2019
ग़ज़ल
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