Saturday, December 30, 2017

बांचल काज । कविता।

बाँचल काज
*
आइ जखन करबा लेल किछु नहि अछि,
एकटा घऽर, ताहि मे खूब पैघ सन कोठली अछि।
छोट छिन हॉल सन ताहि कोठली मे कुर्सी सब धयल रहैए।
कोनो ठाम हम कोनहुंँ कुर्सी पर बैसि सकैत छी।
बैसले बैसल साँझो भरली ओंघा सकैत छी।
पढ़बा लेल बिन पढ़ल इच्छित कोनो पोथी ताकि सकैत छी।
बहुत किछु बाँचले रहि गेल, कहबाक छल जे सबटा,
कहि सकैत छी ककरो।आखिर बहुत लोक,सर-समाज नहि भने, सब सुनबा लए स्त्री छथि। कहि सकैत छिअनि |
भरि जीवन सुनैत रहलीह एक दिसाहे सबटा
हमर विफलताक क्लेश ।
अधीर नहि भेलीह, बचबैते रहलीह सदा अपन कीयाक सिंदूर जकाँ हमरो विश्वास। करुणामूर्त्ति, संग छथि ।
मुदा ओहो तँ आब,भने एक रती भिन्न, हमरे जकाँ।
कनियें काल मे ओंघाय लगैत छथि।ओहो आब ।
कहबाक प्रवाह मे यावत् से होइत अछि हमरा ध्यान कि ओ,
चिहुंँकि कऽ धरफड़ायलि  उठैत छथि आ थाकलि बिहुँसिआइत अनमन हमर डेढ़ बर्खक बेटी जकाँ लजा जाइत छथि-अपना अवस्था पर।
हम स्तब्ध,किछु अखियासऽ लगैत छी कोनो काज।
कहाँ अछि हमरा लग आब किछु काज।
-भोरका खोराक औषद खयलियैक कि बिसरि गेलिऐ फेर आइ?-पूछैत छिअनि।
ओ खेलाइत-खेलाइत असोथकित भेल बच्चा जकाँ फेर लजाइत छथि। ओहिना बिसरि गेल होमवर्क पर ताकऽ उठि जाइत छथि किताब-कॉपी जकाँ
हमरो दुपहरियाक कैप्सूलक बस्ता।
२.
आब जखन हमरा लग कोनो काज नहि अछि,
एतेक टा छोट छिन हॉल जकाँ कोठली मे हमरे  सुभीता वास्ते ठाम-ठाम राखल कतहु कोनो कुर्सी पर बैसि सकैत छी।
सब किछु बिसरि कऽ किछुओ कऽ सकैत छी याद ! जेना, मामूली पानि पटयबाक अभाव मे किएक
सुखा गेल रहय
मधुबनीक नामी नर्सरीक ओहन भविष्णु आम-
कृष्णभोगक गाछ ? मुदा ताकुत रखैत,
ओही दूरस्थ इनार सं घैलक घैल पानि भरि-भरि,
साँझ प्रात पटबैत,सेवा दुआरे कोना भरि गेल रहय
हरियर पल्लव सँ ओहन रोगाह जर्दालू नवगछुली ?
मजरल रहय अगिले साल !
तकर टिकुला पर लिखने रही कहियो कविता .

साबुत रहय इनार।

३.
आब एखन हँ, स्त्री छथि तँ  घर अछि। घर अछि तँ भनसा घर। भनसा घर तें बर्तन-बासन। अन्नक दाना, गैस चूल्हि अछि। दूध औंटक डेकची अछि।
भरि दिन मे रातियो धरि मेंही-मेंहीं म्याउँ-म्याउँ करैत,
आबिये जाइत अछि एको बेर  बिलाड़ि ।
भोरे भोर कोनो ने कोनो कार पंछी पहुँचिये जाइए करैत अपन शब्द निनाद। फटकल-बीछल सं बाँचल गृहस्थीक अन्न कणक आस आ उमेद मे। साँझ गाबि सुनाबय अबिते अछि
सूर्यास्त सँ पहिने, चिड़ै चुनमुन्नी !

४.
हमरा नहि अछि काज। मुदा, बाँचल छैक
डाढ़िये सं खरकट्टल भने, दूधक डेकची ।
तकरा आस में बिलाड़ि ।
गाछ बृक्ष। पशु पक्षी। बर्खा बसात। सब तंँ बाँचले एखन।
स्मृतिक कल्पतरु। थर्मामीटर लगा कऽ जाँचब बोखार। तुलसीक काढ़ा ,नेबो-नोन-जमाइनक खदकी .
बाढ़ि विकालक द्वीप हमर गाम,
खाट पर मलेरिया मे पड़ल बच्चाक कपार पर
बेर बेर रखैत असहाय जननीक वत्सल हाथ !
कमला रूसि क’ चलि गेलीह .
कमला कातक कोनो माय भरिसक्के गेलीह शहर कहियो।
५.
गाम जाएब एकटा काज बाँचल अछि।
सोचि सकैत छी।
कोनो नेना चोभि क’ अनेरे फेक देने रहैक-
पछिला साल आमक आँठी,
अँगनाक कोनो कोन में,
पेंपी देने हेतैक,पनगि कऽ भ’ रहल हएत लाल तिनपतिया गाछ ! से एखन बान्हक कात बाध सँ हमरा आँगन अबैत बसात मे जन्मौटी नेनाक नान्हि टा मूड़ी हिड़ला झुलैत हैत !

ललाउँछ हरियर गाछ !
लगैत हेतैक आस!

पोखड़ि अपना हिलकोर सँ
बूढ़ पुरान दछिनबरिया घाट कें गुदगुद्दी लगबैत हेतैक,
सिनेह सँ अकच्छ कऽ रहल हेतैक।

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नोट :

मुदा हम विस्मित छी जे हमर ई कविता पढ़ि कऽ एकटा मित्र एकरा व्यर्थ, नॉस्टेल्जियाक अचेष्ट सूतल कविता कहि कऽ चेतबैत छथि -कहाँ सं अहांँ अतीतक प्रेतांशक कविता लिखऽ लगलौं औ कवि गुंजन जी? पर्यावरणक सरकारी कविता अहूँं लिखऽ लगलौं की यौ ?

आब एकर कोन जवाब  ?                            ***
-गंगेश गुंजन

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