Wednesday, January 29, 2020

पाठक माने दिहाड़ी मज़दूर।

साहित्य के असल पाठक क्रयशक्ति से बाहर मज़दूर के समान बाज़ार से बाहर हैं।

*  लेखक का एक और काम बढ़ गया है। गये दशक से यह अनुभव दृढ़ हुआ।अब उसे अपने पाठक का भी प्रबंध करना पड़ता है। प्रकाशन के प्रबंधन से यह प्रबंधन कम कठिन नहीं है। अर्थात इसमें भी,भले ही एक खास प्रकार का किंतु निवेश तो करना पड़ रहा है। सिर्फ़ लेखकीय पहचान या साहित्य की गुणवत्ता, रचनात्मक नव्यता भर अधिक पाठक आकर्षित करके नहीं ला पाती और ना पुस्तक से जोड़ पाती। जिनके पास अपने एनजीओ हैं उन्हें यह समस्या अवश्य कुछ कम होगी। पाठक-श्रोता जुगाड़ू इसी उपाय के तहत,इसी के फलस्वरूप अब साहित्य का भी टीआरपी लगभग व्यापारिक क्षेत्रों की तरह ही हो गया है तो अस्वाभाविक भी नहीं है। यह यथार्थ ''इस वर्ष की श्रेष्ठ" और "सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक" इत्यादि गोत्र के शीर्षक से बाजार यही ठहाके लगा रहा है।

   लेखनमें अब यह अपने प्रकार की एक नई दु:स्थिति आन पड़ी है। स्वीकार्य या अस्वीकार दोनों ही सच्चाइयां अस्तित्व में हैं।गोर्की और प्रेमचंद तो दो-चार -दस हो नहीं सकते। अब आकर यदि चाहें तो शायद निराला नागार्जुन भी नहीं हो संभव । 

सो अब जबकि पाठक-समाज भी प्राय: किसी न किसी निवेश का उत्पाद हो गया है तो लेखन भी ब्रांडेड वस्तु का बाजार मान लेने में क्या दुविधा।

     यह तो एक बात। लेकिन,सच यह भी है कि-पाठक आज भी हैं और अपने उसी सरल-सहज उत्सुक पाठक के स्वभाव के साथ। विडम्बना है कि ब्रांडेड वस्तुएं उनकी क्रयशक्ति के बाहर हैं। और वे पाठक उसी तरह हाशिए पर हैं जिस तरह महानगरी मॉल से दामी वस्तु नहीं ख़रीद पाने की घायल इच्छा से भरा खोमचे वाला,कोई दिहाड़ी मज़दूर।

गंगेश गुंजन

। उचितवक्ता डेस्क। २९.१.'२०. अपराह्न।

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