Tuesday, August 21, 2018

लिए लुकाठी हाथ !

लिए लुकाठी हाथ !
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कबीराहा चरित्र के व्यंग्य की यह प्राकृतिक लाचारी है कि वह हरदम सत्ता के विरुद्ध होता है। हर वर्तमान में सही व्यंग्य, संपन्नता सामर्थ्य उसके दुरुपयोग और जनसाधारण की पीड़ा के हवाले से ही किया जा सकता है और किया जाता रहा है । साहित्यिक व्यंग्य की यही सार्थकता है। इसलिए हर वर्तमान में वह सत्तासीन राजनीतिक कार्यवाहियों का प्रतिरोध करने के लिए खड़ा होता है ।तब जाहिर है कि वह व्यंग्य सत्ता के द्वारा प्रताड़ित और दंडित किया जाता ही रहता है। कुछ रचनाकारों का यह भ्रम है कि वर्तमान राजनीतिक व्यंग्य पारस्परिक वैमनस्य पैदा करता है। असल में व्यंग्य के वास्तविक खतरे,सत्ता की ओर से ज्यादा होते हैं जबकि अधिकांश रचनाकार भी सत्ता का सुख और सुविधा पाना ही चाहते हैं।तो मेरे विचार से इस प्रकार के परहेज की भावना को रचनाकार की सीमित स्वार्थपरता का एक रूप माना जा सकता है।सत्साहित्य की समस्त विधाओं में व्यंग्य कदाचित सबसे अधिक जोखिम झेलता है ।यदि उसमें सिर्फ मनोरंजन का तत्व न हो तो।जिस सीमा तक इमानदारी से सामाजिक  प्रतिबद्धता, सामाजिक सरोकार के दु:ख सुख और सत्ता के शोषण का कठोर यथार्थ जिक्र होता है उस सीमातक व्यंग्यकार हर युग में प्रताड़ित किया जाता है,सुविधा-सुखसे वंचित रखा जाता है और जाहिर है कई प्रकार के सृजन-सांस्कृतिक संकटों में भी पड़ा रहता है। सो व्यंग्य अंततः व्यक्ति या वर्तमान सत्ता शासन संस्था मात्र पर नहीं होता वह सम्मुख वर्तमान, समय की पूरी समझ,उसे चलाने वाले सुख संपन्न सामाजिक नेतृत्व के विरोधाभासी चारित्रिक व्यवहारों पर लक्षित होता है।
   कबीरदास ने यूं ही नहीं कहा था 'कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ’!
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गंगेश गुंजन 23 जुलाई 2018

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