Wednesday, May 2, 2018

कुछ छोटे-बड़े दु:खों की झाड़ियां !

कुछ छोटे बड़े दुखों की झाड़ियां

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तो मैंने पाया कि हर एक दिन कुछ ना कुछ छोटे बड़े दु:खों की झाड़ियां मेरे इर्द-गिर्द उग आती हैं। देखते देखते मेरे घुटने से ऊपर कमर कंधे तक फैल गई हैं । दु:खों की यह झाड़ियां बेहद कंटीली हैं,और इनसे निकलती हुई वानस्पतिक गंध भी उबाऊ और अप्रिय है । तो ज़ाहिर है बहुत चुभती है । हाथ में कोई हंसिया या कुल्हाड़ी नहीं ना कुदाल कोई कि काट-छांट कर अलग करता रहूं ।
   सुबह उठने लगा तभी मेरे ज़ेहन में आया कि सारी झाड़ियां अगर जो मेरे सामने एक ही वृक्ष के रूप में हो जाएं ! थोड़ा सा कोई बरगद,पीपल,पाकड़ ऐसा ही कोई बृक्ष तो कदाचित दु:ख कम लगे। चुभन कम लगे ।और गंदगी कम सो मैंने अपने तमाम दु:खों को सोच-सोच कर इतना बड़ा-इतना बड़ा कर लिया कि अब वह किसी के लिए बरगद है,किसी के लिए पीपल है,किसी के लिए पाकड़ ! और मजे की बात यह है अब मैं उसके नीचे आसन लगाकर बैठ गया हूं । दु:ख ऊपर-ऊपर फैला है।
   मैं उसी को अपनी छाया बनाए निश्चिंत होकर नीचे बैठा हुआ हूं। और ऊपर से तसल्ली है कि हज़ारों अपने छोटे-छोटे व्यर्थ के दु:खों को एक विशाल वृक्ष बना लिया है।
    मैं तो अपने दु:खों से हल्का हो ही गया हूं,अब इस वृक्ष पर कितने पंछी परिवार के घोंसले बन गये हैं।नित्य एक न एक कोई माता पंछी अंडा देती है।इतने छोटे-छोटे पक्षी खुद आकर घोसलों से बाहर निकलते हैं। घोसलों से उतरते हैं चिन-चिन चिन-चिन चिन-चिन करते रहते हैं।और अब मेरे दु:ख की आवाज जो आह-कराह का शोर बन गई थी अब इन पंछियों से, हवाओं के पत्तों से, गाड़ी खींचते बैलों के गले की घंटियों, बटोही के पद चापों के संगीत से भरा रहता है।अपने नानी गांव से गाते हुए गांव के मार्ग पर मैं,बैलगाड़ीवान की तरह एक विशाल वृक्ष की छाया में धूप बिताने बटोहियों के साथ हो जाता हूं । कुछ देर टिक जाता हूं।
चैन है।      
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-गंगेश गुंजन।२५.२. '१८ई.

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