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मुझे अब कौन-सा मा’लिक-ओ-
मुख़्तार बनना था
सियासत में नहीं था कि कोई सरकार
बनना था
इनायत सी न जाने ज़िन्दगी किसने
अता कर दी
नहीं लगता अगर्चे दिल मगर स्वीकार
करना था
बहुत था ख़ास कि हम आ गए थे फिर
उसी बस्ती
हुए इनसान थे अब क्या मुझे अवतार
बनना था
नहीं छोड़ा मुझे जीना था आख़िर तक
सुलगने भर
अबर जो उठके आना था तो बस
अंगार होना था
रिवायत में हुआ ही चाहती थी ख़ास
मक़्ते की
ग़ज़ल नाराज़ कर अशआर क्या
बाज़ार बनना था
। ▪️।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडे.
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