🌜✨🌛 भाष - कुभाष
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कभी-कभी कुछ प्रबुद्ध लोगों की भाषा पढ़ते हुए भी (मेरे मस्तिष्क में ) यह संदेह होता है कि किसी अनपढ़ और अशिक्षित की भाषा अधिक असभ्य है या इन महामहोपाध्याय की ?
यह ठीक है कि वैचारिक उत्तेजना में कभी- कभी विद्वानों की भाषा भी उद्दंड-सी लग सकती है किंतु ज्ञान और सिद्धांत अथवा वैचारिकता का उदात्त संदर्भ होने के चलते उनका उद्देश्य और प्रयोजन विशेष और व्यापक होता है। अतः पाठक अपने विवेक से उन्हें किसी शिक्षक की डांट मान कर सहन कर लेते हैं। हालांकि शिक्षक की भाषा में भी अपने ज्ञान का आत्मविश्वास भर ही होना चाहिए, शिक्षक होने के हक़ से अपने ज्ञान का घमंड तो नहीं छलकना चाहिए।
भाषा समय समय पर इन दोनों का भेद
खोल ही देती है। बहुत महान् तो होती है भाषा लेकिन आवश्यक होने पर चुगलख़ोरी भी करती है ।
लेकिन बहुत तो फ़क़त अपनी निजी भड़ाँस निकालने के लिए और वह भी तुच्छ राजनीतिक दल,विचारधारा या अपनी तथाकथित साहित्यिक आक़ाओं की पक्षधरता और वफ़ादारी साबित करने में भाषा-व्यवहार की न्यूनतम शिष्टता भी नहीं निभाते और असभ्य भाषा तेवर में लिखते रहते हैं। विशाल, गहरे और विस्तृत पहुँचे हुए इस सामाजिक संचार माध्यम पर यह विडंबना तो और भी असहनीय है।
मुझे क्या मालूम नहीं है कि मेरे यह कहने से भी क्या होगा? लेकिन अपनी आपत्ति नहीं कहूंँ यह भी तो नहीं होगा मुझसे।
•। गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडे.
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