Thursday, January 18, 2018

अंधेरे और उजाले की कहानी-(२)

(२) अंधेरे उजाले का किस्सा

अंधेरे और उजाले की एक और प्रेम कथा है।अंधेरे और उजाले में बहुत प्रेम के साथ ही अपना-अपना स्वाभिमान भी बहुत ऊंचा था। सो एक दिन दोनों में किसी बात पर ठन गई। बहुत अधिक। दोनों उत्तेजित और उद्विग्न रहने लगे। इसी दौरान ऊपर से एक और तीखी नोंक-झोंक हो गई। क्रोधी प्रकाश ने अपने स्वभाव के अनुरूप ही अंधकार को जला कर राख कर दिया !
तब जलती हुई तकलीफ में अंधकार ने भी आर्तनाद करते हुए दिन को श्राप दे डाला-
- ‘ बिना किसी दोष के तुमने मुझे जलाया है।जाओ,अब तुम खुद भी जीवन भर अकेले जलते रहोगे।’
अब जो ध्यान आया तो रात के इस श्राप पर प्रकाश,बहुत परेशान हो उठा।अब उसे अपनी इस भयानक भूल का एहसास हुआ। लेकिन अंधकार को श्राप तो दे चुका था।अब करता वह ?
लेकिन खुद जलते हुए भी अंधकार ने,प्रकाश के चेहरे पर जो करुणा देखी तो उससे रहा नहीं गया। वह द्रवित हुए बिना नहीं रह सका। प्रकाश पर उसे बड़ी ममता हो आई। सो उसने कहा कि-
-’तुम जलते तो रहोगे। लेकिन जलते-जलते और थक कर अपनी पीड़ा में,मेरे पास ही आओगे। मेरी ही गोद में। मैं तुम्हें शाम से रात तक शीतल छाया दूंगी।’ स्त्री स्वभाव के अनुरूप अंधकार ने उसे भरोसा देते हुए यह वचन दिया।
   और कहते हैं उसी के बाद जलते-चलते हुए दिन,खुद ही शाम में ढल जाता और फिर रात बन जाता। रात सूरज की सेवा करती है। स्वयं सो नहीं सकती। वह कहां से सो पायेगी। खुद तो जगी रह जाती है। दिन भर जल कर आये हुए सूरज के देह-ताप को शीतल और सामर्थ्यवान बनाने के लिए रात भर जगी ही रहती है,इस चिंता से कि कहीं उठने में देर न हो और दिन को निकलने में घड़ी भर भी विलंब न हो जाय। उसे सुबह-सुबह तैयार करके पृथ्वी पर भेज देती है। ठीक वैसे ही जैसे आजकल सुबह-सुबह बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजती है-मां।
(क्रमश:)
-गंगेश गुंजन।३.४.’१७ ई  ।
९.९.’१७.गुंजन।

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