दु:ख दिल से सहा नहीं जाता
और उससे कहा नहीं जाता
कौन अपना बचा है गाँवों में
सुन के दौड़ा यहाँ चला आता
बारहां सुख को निकलते देखा
घरके ग़म से ही धकेला जाता
हम भी रहते उसीकी बस्ती में
चैन में मन मेरा भी इतराता
काश होती बची कहीं तासीर
आँख में अपनी भी लहू आता
वह जो बदला तो इस क़दर किअब
मैं भी उसके लिए कहाँ जाता
कोंपलें फूटनी हैं अगली रुत
एक हसरत कि देखकर जाता
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रचना: 9 फरवरी,2013.
-गं.गुंजन
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