Monday, October 30, 2017

भाषा की पीड़ा

भाषा की पीड़ा
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सिर झुकाये भाषा, हाथ जोड़ कर खड़ी थी और
एक साथ मुझे अपनी लाचारी और
चेतावनी दे रही थी- मानुष कवि !
इतने असत्य,अन्याय और अंधियारा मैं नहीं बोल सकती अब। तुम्हारे दु:ख,शोषण और परिवर्तन कहते-कहते मैं बेअसर हो चुकी हूं। भोथड़ी हो गई हूं।
और तो और ऐसा लोकतंत्र भी मैं नहीं लिख सकती। इस तरह तो अभी तो भोथड़ी हो रही हूं,कल को तो गूंगी हो जाऊंगी।

-प्रेम से लेकर युद्ध और ध्वंस से निर्माण तक,असहयोग से सशस्त्र प्रतिरोध तक...लाठी-तलवार से  बंदूक कबसे ये सबकुछ कहती आ रही हूं।

देखने के तुम्हें इतने महाभारत और इतिहास दे दिए हैं दुनिया भर।सत्ता,शासन राजतंत्र-लोकतंत्र।
यह लोकतंत्र तुम्हारा ! और अब तुम चाहते हो कि तुम्हारे लिए इन्हें पढ़ूं भी मैं ही, मैं ही करूं ?

तुम लात-जूते खाते रहोगे,वक्त़-वक़्त पर‌ जेलों में तफ़रीह करने जाते-आते रहोगे। धरने पर बैठे फोटो लिवाते रहोगे, वहां से उठकर वोट देने जाते रहोगे।
भले शब्द-लोकतंत्र और परिवर्तन भी मैंने ही कहे, तो ?
    तुम सिर्फ़ इन्हें बोलोगे और बोल कर सोओगे ?...
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-गंगेश गुंजन। ३१.१०.’१७.

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