Sunday, October 22, 2017

फेसबुक ज़िम्मेदारी

वैसे कल से तनिक उद्विग्न हूं।मेरे एक प्रिय बंधु जो सुपठित हैं सुलझे हुए हैं,एक पोस्ट पर उनकी  प्रतिक्रिया पढ़कर चिन्तित भी। हालांकि अभी उनका उपकृत भी हो रहा हूं कि उन्हीं के उकसावे या प्रेरणा से यह टिप्पणी लिख रहा हूं।

  मेरे हिसाब से तो Facebookबहुत बड़ी दुनिया है। हमारी अच्छी-बुरी नशीली-विषैली,आनंद और दु:ख की बहुत बड़ी दुनिया रोज़ इस पर अपने आकार लेती है। हमारी मानवीयता,विचार और भावुकता के साथ अपनों तक पहुंचती-पहुंचाती है।आज जब कि साधारण जीवन से पारंपरिक त्योहार भी जीवन से लुप्तप्राय हैं,इस शुष्क जीवन-परिस्थिति-शैली की उद्विग्नता व्यग्रता के बीच ये पृष्ठ कुछ पल के लिए हमें हमारी मनपसंद दुनिया रचने का ख़्वाब याद दिलाते चलते हैं।

  तो ऐसे में हमें, किसी पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए इसका शऊर, इल्म और अंदाजा अवश्य ही रखना नहीं चाहिए कि हम यह टिप्पणी कहीं हरबड़ी में अतः ऐसी टिप्पणी तो नहीं कर रहे जिस अनुभव, विद्या-विधा के हम अधिकारी नहीं हैं, जो हमारा क्षेत्र नहीं है? जो हमारा विषय नहीं है जो हमारी विशेषज्ञता नहीं है या जो हमारे मन की भी बात नहीं है।उसपर हरबड़ी में या क्षणिक किशोर भावुकता के ज्ञान बघारू उत्साह‌में तो ‌नहीं कर रहे? फटाफट और कुछ भी कह देने से क्या हमें बचना नहीं चाहिए?

   हम जानते हैं सभी सब कुछ नहीं जानते परंतु ‘सभी’ कुछ न कुछ विशेष, अवश्य जानते हैं।तो हम यदि अपनी टिप्पणियों को अगर अपनी सीमा को समझते हुए उसी से नियंत्रित और प्रेरित करें तो कदाचित Facebook पर टिप्पणियों के चलते जो बदमज़गी आये दिन होती रहती है,जैसी कुरूप चर्चा चल पड़ती है वह थम सकती है।अत: हम इसके लिए मुनासिब संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से तत्पर रहते‌ हुए, अपने ज्ञान,अपनी जानकारी, विचार और अपने आदर्श का प्रयोग नहीं कर सकते जो लक्षित समाज लक्षित विषय और सर्वसाधारण उद्देश्य की रुचि,बुद्धि और भावना के अनुसार भी बन पड़े ?

‌‌   इस दुश्वारी के चलते ही अपने कतिपय वैसे योग्य,गुणी और आवश्यक आत्मीयों को उनकी सुंदर और मूल्यवान  टिप्पणियां पढ़ कर भी अपनी पसन्द, सराहना भावना को भी संप्रेषित नही कर पाने की मेरी भावनात्मक समस्या तो अलग है।

  ‌  अपने फेबु साथियों के सम्मुख यह मेरा प्रस्ताव,निवेदन है, कोई परामर्श नहीं। शुभकामनाएं।

सस्नेह,

-गंगेश गुंजन ।२२.१०.२०१७ ई.

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