Friday, September 21, 2018

आश्रय के अभिप्राय

।।  आश्रय के अभिप्राय  ।।
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आश्रय का अभिप्राय बहुत बदल चुका है। राज्याश्रय और लोकतंत्र के आश्रय में बुनियादी फर्क है । दोनों के काल और क्रम में भी अंतर है । दोनों व्यवस्थाओं और उनकी प्रकृति में भी अंतर है।यही मानकर चलना और सोचना ही विज्ञानसम्मत होगा। जैसे आप देखें, राज्याश्रय अगर इतना ही निषिद्ध होता जैसा आज कहा जा रहा है तो कवि विद्यापति नहीं होते,तानसेन भी नहीं होते।इस प्रकार और भी कुछ उदाहरण आदर के साथ याद किए जा सकते हैं।
   आज इस लोकतंत्र में भी नई शैलीका आश्रय बना, विकसित हुआ और स्थापित होकर अब विद्यमान है। चतुर सुजान लोग उसका लाभ उठा रहे हैं और यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस स्वतंत्र भारत के नए लोकतांत्रिक आश्रमों (आश्रयों) में संस्कृति की, साहित्य-कला विधाओं की सर्वथा हानि ही हानि हुई है। नहीं। याद करें तो स्वतंत्र भारत के दो-चार-पांच नाम अनायास याद आते हैं जो संयोग से कविता साहित्य के हैं और उनकी चर्चा भी होती है।उन पर सकारात्मक नकारात्मक राय भी बनाई जाती है। इन सबके बावजूद इन कुछ नामों की प्रातिभ महत्ता एकदम से खारिज नहीं की जा सकती। आधुनिक भारत के हिंदी साहित्य के, कविता के इतिहास में इनके योगदान का भी उल्लेख किया ही जाएगा।
    नए युग का या कहें इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में असल प्रभाव है पत्रकारिता में जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया।और ऐसा उसने अपने आरंभिक काल से हाल-हाल तक निभाया भी है स्वतंत्रता संग्राम में इस विधा के बिना,इस विधा  के लोगों के अनमोल योगदानों को भूल कर हम अपनी स्वतंत्रता की ईमानदार चर्चा नहीं कर सकते। मुकम्मल तो हो ही नहीं सकती। परंतु हिंदी पत्रकारिता ने अपनी वह जुझारु तटस्थ और आदर्श परंपरा जिसे इतना सिर आंखों पर बिठाया गया आज कहां खड़ा है,समझने वाली बात है।
      कितना उसे नजरअंदाज किया गया और हो रहा है, यह छुपा हुआ नहीं है अब । तोप के मुकाबले अखबार के नए स्वरूप इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तमाम माध्यम TV चैनल रेडियो इत्यादि सब की विश्वसनीयता निश्चिंतता के दायरे में नहीं बच पाई है । संदेह की छाया सारी विधाओं पर पड़ चुकी है और जनसाधारण ऐसा मानने भी लग गया है।
    तो क्यों हुआ है ऐसा कि कविता से लेकर पत्रकारिता तक नए आश्रय में इतनी असमर्थ चापलूस होती गई है? अभी हाल हाल तक दुर्बल जन पक्षीय संकल्पित सरोकार और ईमानदार रचनाकारों का अनुपात बहुत थोड़ा था। समाज के सारे विभागों में,सारे संदर्भ में सकारात्मक पक्ष बहुमत में था । आज ऐसा क्या हो गया कि कविता से लेकर पत्रकारिता और तमाम विधाएं सकारात्मक की तुलना में नकारात्मक आश्रय आश्रमों में विश्राम करने पहुंच गए हैं ? सोचने की बात है । सिर्फ़ मानना और जुमले की तरह कह देना, इससे अब काम नहीं चलेगा ! समाज की जनता,साहित्य के पाठक, संस्कृति के विचारक-विश्लेषण आज की इस राजनीतिक राजनीतिक रुझान और समर्पण से खूब परिचित हो चुके हैं। इस सच को खुले दिल दिमाग से स्वीकारना चाहिए और विचारना चाहिए। लेकिन चिंता यह है कि ये वर्तमान सचेत जाग्रत पाठक, विचार-विश्लेषक भी इसी राज्य व्यवस्था और कालप्रवाह की उपज आमद हैं।
ऐसे में करना क्या है? रहना और चलना कैसे है ?
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-गंगेश गुंजन।


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