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लौटना बढ़ने से आगे बहुत था आसान लेकिन बन्द गलियों के शहर में लौट कर हम कहाँ जाते। (२). उम्मीदकी दीवार का प्लास्टर उतर रहा अब झलकने लग पड़े कंकाल ईंटों की दरारों से।
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडे. (फेसबुक पर १३.१०.'२४
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