Sunday, October 25, 2020

अभी हूं मैं।

             अभी हूं मैं !

                    *

आख़िर अपनी ऋतुओं को मैंने

तिथि मुक्त कर डाला। 

मेरी चेतना में वे अब संदर्भ स्वतंत्र हैं।

कम सांघातिक नहीं होती है कोई,

तारीख़ की पराधीनता। 

यह बोध हुआ तो अब किताब-अख़बार,

मीडिया मुद्रित उसका ज्ञान,संशय का अलग  विरोधी,जटिल जंजाल लगता है।

जिस दिन दो अक्तूबर को मेरी बस्ती के वृद्ध शिक्षक की हत्या हुई उसी दिन से।

समाज में अंतिम आदमी की अधिकारिता के संघर्ष में ऐन पहली मई को हुई यहां मेरे मित्र की एक और हत्यारी विदाई,उसने वह मन नहीं बचने दिया तीस जनवरी वाला भी।

शहर के मुहल्ले और गांवों की बेटियाें का ऐन जानकी नवमी के रोज़ बलात्कार हो और इतना लोमहर्षक देह दहन ! इतनी बार देख-देख कर 

जानकी नवमी अब,गौना होकर आई स्वप्नमयी आत्मा की नव विवाहिता का सर्वांग जल कर तड़पता हुआ एक स्त्री-तन मात्र दिखाई देता है।

सो अब,क्या कोई,

विवाह पंचमी भी।


अब बचा हुआ हूं मैं,

हर हाल बचा कर रखना चाहता हूं- पन्द्रह अगस्त !

जैसे हालात हैं इसमें,देखें कब तक बचाए रख सकता हूं यह दिन ! अपनी आत्मा में कब तक सुलगाए रख सकता हूं यह अलाव भी !

कम से कम यह तिथि तो समूचा शीत काल रात भर तापते रह कर बिताना चाहता हूं।

मौसमों की मिली-जुली दुरभसंधि अब इसे भी हमारी चेतना से विस्थापित कर देने पर आमादा है।

होने नहीं देना चाहता हूं स्मृति-लुप्त।

लेकिन नहीं जानता इसके बारे में,यहां तक कि

अपने प्रिय पड़ोसियों का मिज़ाज।

     मगर इससे क्या,मैं तो अभी हूं ।

                   गंगेश गुंजन,

               #उचितवक्ताडेस्क।

No comments:

Post a Comment